बुधवार, जून 02, 2010

घुमंतू सिनेमाघरों से मल्टीप्लेक्स तक का सफर

 हिंदी सिनेमा का इतिहास-13
-राजेश त्रिपाठी
कई पड़ावों से गुजरता भारतीय सिनेमा ‘छोटा चेतन’ और ‘शिवा का इंसाफ’ में थ्री डी (त्रिआयामी) पद्धति को भी आजमा चुका है। इनमें ‘छोटा चेतन’ ने कामयाबी पायी और ‘शिवा का इंसाफ’ की विफलता ने इन फिल्मों की राह रोक दी। बहरहाल , आज एक फिल्म को बनाने में एक वर्ष से भी अधिक वक्त लग जाता है। बहुचर्चित फिल्म ‘मुगले आजम’ को पूरा होने में 12 वर्ष से भी अधिक वक्त लग गया था। जब यह फिल्म पूरी होने को आयी, तब तक रंगीन फिल्मों की धूम मच गयी थी। मजबूरन के. आसिफ को इसका शीशमहलवाला दृश्य रंगीन करना पड़ा था। ‘पाकीजा’ भी 10 साल आसानी से खींच ले गयी। लेकिन पहले के दिनों में साल में तीन-चार फिल्में बन जाती थीं। कारण न तो रिटेक ही ज्यादा होते थे न डबिंग के लिए सितारों का इंतजार ही करना पड़ता था। दर्शक किसी फिल्म को बार-बार देखने के बजाय नयी फिल्म देखना पसंद करते थे। उन दिनों सबसे कम समय में बननेवाली फिल्म थी मोहन स्टूडियो की ‘ ईद का चांद’, जिसके निर्देशक ए.एम. खान थे।
फिल्मों के निर्माण में प्रतिस्पर्धा तब से शुरू हुई जब से स्टूडियो पद्धति समाप्त हुई।पहले वही फिल्में बनाने के धंधा करते थे, जिनके पास अपने स्टूडियो होते थे। कलाकार और तकनीशियन उस स्टूडियो के वेतनभोगी कर्मचारी हुआ करते थे। इस पद्धति को तब धक्का लगा, जब सी.एन. त्रिवेदी नाम के एक निर्माता ने अभिनेता मोतीलाल को अनुबंधित किया और स्टूडियो भाड़े पर लेकर फिल्म बनाना शुरू कर दिया। त्रिवेदी से प्रेरणा पाकर ऐसे और लोग भी इस धंधे में आ गये, जिनके पास पैसे तो थो, पर अपने स्टूडियो नहीं थे। ये लोग कलाकारों का चयन करते, स्टूडियो भाड़े पर लेते और फिल्म बना डालते। इसका प्रभाव अन्य निर्माताओं पर भी पड़ा। कलाकारों के लिए फ्रीलांसिंग का सिलसिला शुरू करने का श्रेय पृथ्वीराज कपूर को जाता है। उसके बाद से कलाकार एक फिल्म कंपनी के बंधे हुए कर्मचारी न होकर बाहरी पिल्म कंपनियों की फिल्मों में भी काम करने लगे। वे जितनी चाहे पिल्में करने को स्वतंत्र हो गये। इसका प्रभाव फिल्मों के स्तर पर भी पड़ा। तभी से कहानी गौण हो गयी और मनोरंजन प्रधान हो गया।
स्वाधीनता संग्राम के वक्त भी फिल्मों में कुछ बदलाव आया था। अंग्रेजी शासन के कारण पहले फिल्मों में शराबखोरी तथा पथभ्रष्ट करने वाले जो दृश्य दिखाये जाते थे, वे बंद हो गये थे। यह देश में नव जागरण के परिप्रेक्ष्य में जनाक्रोश उमड़ने की आशंका से हुआ था। 1942 के आंदोलन का प्रभाव भी फिल्मों पर पड़े बगैर नहीं रहा। दूसरा परिवर्तन आजादी के बाद देखा गया। 1947 के आसपास निर्माताओं ने देश भक्ति पर जितनी फिल्में बनायीं थीं, उतनी फिर कभी नहीं बनीं।
आजादी के पहले तक देश की फिल्मों मे जहां अपनी संस्कृति, सभ्यता और परंपरा की छाप थी, वहीं बाद की फिल्मों में यह सब गायब हो गयी। हमारी फिल्मों में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति ऐसी हावी हो गयी कि अब तो फिल्में पूरी तरह से उसी रंग में रंग गयी हैं।
श्वेत-श्याम फिल्मों के बाद 1937 में पहली रंगीन फिल्म ‘किसान कन्या’ बनी। इसके निर्माता निर्देशक अर्देशिर ईरानी इसके बाद सोहराब मोदी ने टेक्नीकलर में ‘झांसी की रानी’ का निर्माण किया। यह फिल्म बुरी तरह से फ्लाप हुई। भारत की तीसरी रंगीन फिल्म महबूब खान की ‘आन’ थी, जो काफी हिट रही। इन दोनों फिल्मों की प्रोसेसिंग विदेश में हुई थी। इसके बाद गेवाकलर , फूजीकलर और इस्टमैनकलर आया।
इन पड़ावों से गुजरता वयस्क होता भारतीय सिनेमा अब एक उद्योग का रूप धारण कर चुका है और इसके लिए उद्योग के दर्जे की मांग भी की जा रही है। यह मांग वर्षों से की जा रही है क्योंकि अगर यह मांग मान ली जाती है तो इसकी समस्याओं को देखने के लिए एक अलग मंत्रालय की व्यवस्था हो सकेगी। केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड अब केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड हो गया है। कई फिल्में अब यहां भी अटकती हैं ।आज फिल्म उद्योग चौतरफा मुसीबत से घिरा है। एक ओर फिल्म का बढ़ता व्यय उसकी रीढ़ तोड़ रहा है तो दूसरी ओर वीडियो कैसेट की तस्करी और वीडियो के प्रसार के चलते मल्टीस्टारर फिल्में तक बाक्स आफिस में मुंह की खा रही हैं। टेलीविजन चैनलों के प्रसार से भी फिल्मों के व्यवसाय को फर्क पड़ा है लेकिन सच यह भी है कि 51 सेंटीमीटर का
परदा सिनेमाघरों का विकल्प नहीं हो सकता। फिल्में आज भी हैं और आने वाले दिनों में भी इनका वजूद रहेगा। अब तो मल्टीप्लेक्सों का चलन है जहां आप एक जगह एक साथ कई फिल्में देख सकते हैं। फिल्मों में भी अब नयी तकनीक का दिनोंदिन प्रचलन होने लगा है। (आगे पढ़ें)