बुधवार, जुलाई 07, 2010

दादा साहब फालके

जिन्होंने भारतीय सिनेमा की बुनियाद रखी
-राजेश त्रिपाठी

जिन लोगों ने भारत में फिल्मों की बुनियाद रखी, उनमें अग्रणी थे दादा साहब फालके। धुंडिराज गोविंद फालके उर्फ दादा साहब फालके का जन्म 30 अप्रैल 1870 को, महाराष्ट्र में नासिक के करीब त्रयंबकेश्वर में हुआ था। भारतीय फिल्मों के जनक दादा साहब फालके एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। उन्हें बचपन से ही फोटोग्राफी का शौक था। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वो फोटोग्राफी सीखने विदेश चले गये। स्वदेश लौट कर उन्होंने एक फोटोग्राफर की हैसियत से पुरातत्व विभाग में नौकरी कर ली। उन दिनों भारत में तो फिल्में बनती नहीं थीं, हां विदेशी फिल्में जरूर दिखायी जाती थीं। उन्हीं दिनों उन्होंने ऐसी ही एक विदेशी फिल्म ‘द लाइफ आफ क्राइस्ट’ देखी। इस फिल्म ने जैसे उनकी जिंदगी की धारा ही बदल दी। दादा साहब देख तो रहे थे क्राइस्ट की जिंदगी लेकिन उनके दिमाग में रह रह कर यह विचार कौंधता था कि काश! क्राइस्ट की जगह कृष्ण होते। और यह बात उनके दिमाग में घर कर गयी कि वे कृष्ण के जीवन पर ऐसी ही फिल्म बनायेंगे। यह सोचना जितना आसान था, इसे पूरा करना उतना ही मुश्किल। कारण, तब तक भारत में किसी को फिल्म तकनीक की जानकारी नहीं थी। न सिनेमा के साज-सामान थे, न उन्हें चलानेवाले कुशल तकनीशियन। लेकिन दादा साहब दृढ़प्रतिज्ञ थे।
अपना सपना पूरा करने के लिए उन्होंने कृष्ण से संबंधित साहित्य पढ़ने में दिन-रात एक कर डाला। ऐसे में उन्होंने यह परवाह भी नहीं की कि वे अपनी आंखों के साथ ज्यादती कर रहे हैं। लेकिन सिर्फ इतने से ही बात नहीं बननी थी। सिनेमा तकनीक का ज्ञान जरूरी था। दादा साहब पशोपेश में थे। तभी उनके हाथ एक किताब लग गयी ‘ द ए बी सी आफ सिनेमैटोग्राफी’। इससे ही उन्हें सिनेमा कला की पहली जानकारी मिली। इसके बाद तकनीकी ज्ञान के लिए अपनी जीवन बीमा पालिसी बंधक रख कर वे इंग्लैंड गये। वहां से वे दो माह बाद एक विलियम्सन कैमरा , एक प्रिंटिंग मशीन व अन्य यंत्र ले कर लौटे ।इन सीमित साधनों से ही उन्होंने फिल्म निर्माण की तैयारी शुरू कर दी।
मुश्किल यह थी कि उन दिनों कोई फिल्मों पर पैसा लगाने को तैयार नहीं था। किसी को यकीन नहीं था कि भारत में भी फिल्में बन सकती हैं। इस बात का यकीन दिलाने के लिए उन्होंने एक काम किया। उन्होंने गमले में सेम के कुछ बीज बोये और अपने कैमरे के जरिये बीज के अंकुरित होने से लेकर क्रमिक विकास को फिल्मा लिया। अपनी इस लघु फिल्म का नाम उन्होंने ‘द ग्रोथ आफ ए प्लांट’ रखा। इसे उन्होंने कुछ लोगों को दिखाया। लोग उनके प्रयास से बहुत प्रभावित हुए और उनकी आर्थिक मदद से दादा साहब ने अपनी पहली फीचर फिल्म बनाने की योजना शुरू की।

अपनी पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के लिए उन्होंने धार्मिक कथा चुनी। इस मूक फिल्म को बनाने में उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सबसे ज्यादा परेशानी तो उन्हें हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती की भूमिका निभानेवाली महिला कलाकार को खोजने में हुई। उन दिनों कुलीन घराने की पढ़ी-लिखी महिलाएं नाटकों और फिल्मों में काम करने का साहस नहीं करती थीं। इस काम को बहुत तुच्छ माना जाता था। तारामती की तलाश उन्हें बंबई के वेश्याओं के मुहल्ले तक ले गयी लेकिन वे भी फिल्म में काम करने को तैयार नहीं थीं। वे भी इसे निकृष्ट काम समझती थीं। किसी ने तो यहां तक कहा कि अगर वह फिल्म में काम करेगी तो उसे उसके समाज से निकाल दिया जायेगा। एक ने तो यह भी कहा कि अगर दादा साहब उसकी बेटी से शादी कर लें तो वह उसकी बेटी फिल्म में काम कर सकती है। हार कर दादा साहब ने तय किया कि वे किसी पुरुष कलाकार को ही तारामती बनायेंगे। लेकिन यहां भी समस्या आयी। कोई अपनी मूंछ मुंडाने को तैयार नहीं था। बहुत अनुनय-विनय के बाद दादा साहब इसके लिए एक युवक को राजी कर पाये। जहां आज दादा साहब फालके रो़ड है , बंबई की उसी जगह पर दादा साहब ने अपनी इस फिल्म की शूटिंग शुरू की। फिल्म की सारी शूटिंग दिन में सूरज की रोशनी में की गयी। 3700 फुट लंबी यह फिल्म आठ महीने में पूरी हुई। उन दिनों सेट आदि बनाने का इंतजाम तो था नहीं, इसलिए किले आदि के दृश्य परदे पर बना कर ठीक उसी तरह पीछे टांग दिये जाते थे , जैसा नाटकों में किया जाता था। इसके निर्देशक, निर्माता, लेखक, कला निर्देशक, छायाकार, मेकअप मैन सभी कुछ दादा साहब ही थे। इस फिल्म में हरिश्चंद्र की भूमिका डाबके ने और तारामती की भूमिका सालुंके ने की थी। रोहित की भूमिका खुद दादा साहब के बेटे भालचंद्र ने की थी।(क्रमशः)