मन्ना दे का जाना संगीत के
एक युग का अंत
राजेश त्रिपाठी
गुरुवार 24 अक्तूबर की सुबह
भारतीय संगीत जगत के लिए एक दुखद खबर लेकर आयी। लंबी बीमारी झेलने के बाद इसी दिन
भारत के महान संगीत शिल्पी, जनप्रिय गायक मन्ना दे ने बेंगलूरु में अंतिम सांस ली।
वे 94 वर्ष के थे। उन्हें पिछले जून महीने में फेफड़े के संक्रमण और किडनी की
तकलीफ के लिए बेंगलूरु के नारायण हृदयालय में भरती किया गया था। वहीं हृदयाघात से
उनकी मृत्यु हुई। मन्ना दे सशरीर हमारे बीच भले न हों लेकिन अपने गाये अमर गीतों
में वे हमेशा जीवित रहेंगे और अपने चाहने वालों के दिलों में घोलते रहेंगे संगीत
के मधुर रंग। 1 मई 1919 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में जन्में मन्ना दा भाग्यशाली थे
कि उनको संगीत गुरु ढूंढ़ने दूर नहीं जाना पड़ा। घर में ही उन्हें गुरु चाचा
कृष्णचंद्र दे (के सी डे के नाम से मशहूर) मिल गये। के.सी. डे के नेत्रों की
ज्योति 13 वर्ष की उम्र में ही चली गयी थी। के.सी. डे शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ
थे और उनके हाथों ही मन्ना दा की संगीत की शिक्षा शुरू हुई। के.सी. डे के साथ ही
मन्ना दा बंबई (अब मुंबई) चले आये। यहां के.सी. डे फिल्मों में संगीत देने और गायन
करने के साथ-साथ अभिनय भी करने लगे। फिल्मों में गाने का पहला अवसर भी उन्हें चाचा
के संगीत निर्देशन में फिल्म तमन्ना (1942) में मिला। उसके बाद फिर मन्ना दा ने
पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने जीवन में उन्होंने 4000 से भी ज्यादा गीत गाये और
अनेकों सम्मान, पुरस्कार जीते। उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्मश्री (1971),
पद्मभूषण (2005) व दादा साहब फालके सम्मान (2007) में मिला।
मन्ना दे ने हिंदी फिल्मों में गाने के साथ ही बंगला फिल्मों भी
गाना गाया। इसके अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में उन्होंने बखूबी गाया। उन्होंने
फिल्मी गीतों के अलावा गजल, भजन व अन्य गीत भी पूरी खूबी से गाये। जब मशहूर कवि
डा. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला को संगीतबद्ध कर गायन का प्रश्न आया तो उसके लिए
भी एकमात्र मन्ना दा का ही नाम आया। मन्ना दा ने इस अमरकृति को बड़ी तन्मयता और
पूरे मन से गाया। हिंदी फिल्मों में उन्होंने कई यादगार गीत गाये जो उन्हें रहती
दुनिया तक अमर रखेंगे। 1953 से लेकर 1976 तक का समय हिंदी फिल्मों में पार्श्वगायन
का सबसे सफल समय था। उनके गायन की सबसे बड़ी विशेषता थी उसमें शास्त्रीय संगीत का
पुट होना।
मन्ना दा का नाम प्रबोधचंद्र दे था लेकिन जब वे गायन के क्षेत्र
में आये तो मन्ना दे के नाम से इतने मशहूर हुए कि प्रबोधचंद्र को फिर किसी ने याद
नहीं किया। उन्होंने स्काटिश चर्च कालेजिएट स्कूल और स्काटिश चर्च कालेज शिक्षा
पायी। खेलकूद में उनकी काफी दिलचस्पी थी कुश्ती और बाक्सिंग में वे पारंगत थे।
विद्यासागर कालेज से उन्होंने स्नातक परीक्षा पास की। बाल गायक के रूप में वे
संगीत कार्यक्रम पेश करने लगे। स्काटिश चर्च में अध्ययन के दौरान वे अपने
सहपाठियों का मनोरंजन गायन से करते थे। उन्होंने इन्हीं दिनों चाचा के.सी. डे और
उस्ताद दाबिर खान से संगीत की शिक्षा ली। कालेज की गायन प्रतियोगिताओं में लगातार
तीन बार उन्होंने प्रथम पुरस्कार जीता।
बंबई (अब मुंबई) आने के बाद मन्ना दा पहले अपने चाचा के साथ उनके
संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे। उसके बाद वे सचिन दा (जो उनके
चाचा के शिष्य थे) के साथ संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे। इस
बीच संगीत की उनकी शिक्षा भी जारी रही। उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद
अब्दुल रहमान खान से संगीत की शिक्षा ली।
पार्श्वगायन की शुरुआत उन्होंने तमन्ना (1942) में की । इसमें
उन्होंने अपने चाचा के. सी. डे के निर्देशन में सुरैया के साथ ही एक युगल गीत
'जागो आयी ऊषा पंक्षी' गाया। इसक बाद तो फिर सिलसिला चल पड़ा और मन्ना दा ने एक के
बाद एक शानदार गीत गाये। सचिन देव बर्मन से लेकर अपने समय के तमान संगीत
निर्देशकों के साध उन्होंने गीत गाये। उनको सबसे बड़ा मलाल यह रहा कि उनके गीत
ज्यादातर चरित्र अभिनेताओं या हास्य कलाकारों पर फिल्माये जाते थे। नायकों पर बहुत
कम ही फिल्माये गये। 1948 से लेकर 1954 तक उनके गायन का चरम समय था। उन्होंने न
सिर्फ शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत गाये अपितु पश्चिमी संगीत पर आधारित गीत भी
बखूबी गाये। राज कपूर के लिए उन्होंने शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फिल्म
आवारा, बूट पालिश, श्री 420, चोरी चोरी, मेरा नाम जोकर फिल्मों के गीत गाये जो
काफी लोकप्रिय हुए। उन्होंने वसंत देसाई, नौशाद, रवि, ओ.पी. नैयर, रोशन, कल्याण जी
आनंद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर. डी. बर्मन, अनिल विश्वास, सलिल चौधरी आदि के
साथ काम किया।
जो गीत उनको अमर रखेंगे उनमें से कुछ हैं-तू
प्यार का सागर है (सीमा), ये कहानी है दिये की और तूफान की (दिया और तूफान), ऐ
मेरे प्यारे वतन (काबुलीवाला), लागा चुनरी में दाग( दिल ही तो है), सुर ना सजे
क्या गाऊं मैं सुर के बिना ((बसंत बहार), कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झनकार
लिये( देख कबीरा रोया), पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी (मेरी सूरत तेरी आंखें),
झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया (मेरे हुजूर), चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली
मुनिया (तीसरी कसम), ओ मेरी जोहरा जबीं (वक्त), तुम गगन के चंद्रमा हो (सती
सावित्री), कसमे वादे प्यार वफा लब (उपकार), यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी
(जंजीर),जिदगी कैसी है पहेली (आनंद), ये रात भीगी-भीगी ये मस्त हवाएं (चोरी चोरी),
ये भाई जरा देख के चलो (मेरा नाम जोकर), प्यार हुआ इकरार हुआ (श्री 420)।
कुछ कलाकारों पर उनकी आवाज इतनी फिट बैठती थी कि लगता है परदे पर
कलाकार खुद अपनी आवाज में गा रहा है। फिल्म 'उपकार' में मनोज कुमार ने मलंग के रूप
में जब तब के मशहूर खलनायक को चरित्र अभिनेता के रूप में मलंग चाचा बना कर एक नया
रूप दिया तो मन्ना दे की आवाज प्राण पर बहुत सटीक बैठी। लोगों को परदे पर लगा कि
जैसे प्राण खुद अपनी आवाज में 'कसमे वादे प्यार वफा' गीत गा
रहे हैं। यही बात फिल्म 'जंजीर' के लोकप्रिय गीत 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी
जिंदगी' के लिए भी कही जा सकती है।
अपनी निजी जिंदगी में बहुत ही अंतर्मुखी रहनेवाले, बहुत कम बोलने
वाले मन्ना दा लोगों से बहुत कम ही मिलते-जुलते थे। उन्हें पार्टियों में जाना
पसंद नहीं था। किसी से मिलते तो बस मुस्करा देते। संगीत उनके लिए पुजा और तपस्या
की तरह था। वे अकसर ऐसा कहते भी थे। जब किसी ने एक बार उनसे पूछा कि दादा सभी गायक
तो गाते वक्त आंखें खोले रहते हैं आप आंख बंद क्यों कर लेते हैं। उनका जवाब
था-संगीत मेरे लिए पूजा है, तपस्या है। तपस्या करते वक्त या पूजा में लीन रहते
वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। संगीत मेरे लिए भी पूजा है इसीलिए गाते वक्त
नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। 19 दिसंबर 1953 में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारन
से शादी की। पत्नी सुलोचना कुमारन की मृत्यु कैंसर से 18 जनवरी 2012 को हो गयी।
उन्होंने जब यह देखा कि हिंदी फिल्मों से उनके तरह के गीतों का जमाना अब नहीं रहा
तो वे पत्नी के साथ बेंगलूरू में ही बस गये थे। उनकी दो बेटियां हैं शुरोमा और
सुनीता। जिनमें से एक अमरीका में बस गयी है और दूसरी बेंगलूरू में है। मन्ना दा
बेटी के पास बेंगलूरू में ही रहते थे। मुंबई में उन्होंने पचास साल से भी अधिक समय
गुजारा। आज मन्ना दा नहीं है तो उनका गाया फिल्म 'आनद' का गीत 'जिंदगी कैसी है
पहेली हाय, कभी ये रुलाये, कभी ये हसाये'। वाकई संगीत के उन प्रेमियों को जो
शास्त्रीय संगीत को मन-प्राण से पसंद करते हैं मन्ना दा रुला गये। मन्ना दा जैसे
कलाकार कभी मरते नहीं वे अपने गीतों में हमेशा अमर रहते हैं। मन्ना दा के भी
भावभरे या चुलबुले गीत बजेंगे तो कभी वे दिल को लुभायें के तो कभी गमगीन कर देंगे।
मन्ना दा नहीं होंगे लेकिन उनकी आवाद ताकयामत संगीत प्रेमियों के दिलों में राज
करती रहेगी और उनको अमर रखेगी।