-राजेश त्रिपाठी
जिंदगी में जो पहली हिंदी फिल्म ‘सीमा’ देखी थी उसमें लता मंगेशकर का गाया एक प्यारा गीत था- ‘ छोटी-सी गुड़िया की सुनो लंबी कहानी।’ लता का अपना लंबा सुरीला सफर , एक गुड़िया-सी बच्ची के जिंदगी के जद्दोजेहद में अपनी प्रतिभा के बलबूते नाकुछ से लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचने की दास्तान है। इस दास्तान में जहां लोकप्रियता, नाम-दाम और शोहरत की तड़क-भड़क है, वहीं है पल-पल काटता अकेलापन, तरह-तरह के विवाद और उदासियों के अनगिनत लमहे। इस सबसे लड़ कर , दर्द को खामोशी से पीकर लता भारतीय पार्श्वगायन की अदम्य, अनुपमेय साम्राज्ञी बन गयीं।
जीते-जी किंवदंती बन जाने वाली लता की लोकप्रियता देश की सीमाएं लांघ विदेश तक जा पहुंची। 1962 में दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में ‘ ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी’ गाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू तक को द्रवित कर देने वाली लता के गायन में एक खास गुण है। वे जो भी गाती हैं दिल से गाती हैं। हर गीत में वे ऐसी गहराई , ऐसी आत्मा भर देती हैं जो दिल की गहराई तक उतर जाता है और उतना ही व्यापक होता जाता है उसका असर।
कभी लता के बारे में महान गायक (अब स्वर्गीय) कुमार गंधर्व ने कहा था--‘तानपुरे से निकलनेवाला राग गंधार शुद्ध रूप में सुनना हो तो लता का ‘आयेगा आनेवाला गाना सुनो।’
लता के संगीत सफर के साथ जुड़े हैं अनगिनत सम्मान, अकूत सफलताएं। लंदन का अल्बर्ट हाल हो या कोई और ऑडीटोरियम हर जगह श्रोताओं ने उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना। यह उनकी प्रतिभा है जिसका कायल होकर ‘टाइम’ मैगजीन ने ने 1959 में उन्हें ‘भारतीय पार्श्वगायन की निर्विवाद और अपरिहार्य साम्राज्ञी’ माना था।
अपार सफलता पाने वाली लता मंगेशकर का शुरुआती जीवन बहुत कठिन था। पिता दीनानाथ गोवा के मंगेशी से आकर इंदौर में बस गये थे। इंदौर में ही लता का जन्म हुआ। दीनानाथ मशहूर शास्त्रीय गायक थे और उनकी एक ड्रामा कंपनी थी ‘बलवंत संगीत नाटक मंडल’ । इस कंपनी को लेकर वे महाराष्ट्र के कस्बों-शहरों में नाटक किया करते थे। उनकी चार बेटियां (मीना, ऊषा, आशा, लता) और एक बेटा हृदयनाथ पिता के साथ बंजारों का-सा जीवन बिताने को मजबूर थे। आज यहां तो कल वहां। ऐसे में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी कुछ खास नहीं हो पाती थी। पिता ने सोचा क्यों न इन लोगों को भी वही हुनर सिखाते चलें जिसमें वे माहिर हैं। इस तरह से छुटपन से ही ही उन्होंने चारों बेटियों और एक बेटे के मन में संगीत की जोत जला दी जिसका उजाला आगे चल कर दूर-दूर तक संगीत की मिठास लेकर फैलता रहा।
इन बच्चों के अक्सर पिता के साथ उनकी नाटक कंपनी में छोटे-मोटे रोल भी निभाने पड़ते थे। गाना भी पड़ता था। इस तरह धीरे-धीरे पुख्ता होती उनके अंतर में संगीत की बुनियाद। बच्चे घर में होते तब भी पिता की सख्त हिदायत के मुताबिक गीत-संगीत का रियाज जारी रहता। नाटक कंपनी से खास आमदनी तो नहीं थी पर परिवार का किसी तरह गुजारा हो जाता था।
भाई और बहनों में सबसे बड़ी लता को उस वक्त चेचक की बड़ी तकलीफ सहनी पड़ी जब वे सिर्फ दो साल की थीं। उनके दिन ठीक-ठाक गुजर रहे थे लेकिन 1934-35 में अर्देशिर ईरानी की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ नाटक कंपनियों पर कहर बन कर टूटी। एक के बाद एक नाटक कंपनियां बंद होने लगीं। बलवंत संगीत नाटक मंडल भी इससे अछूता न रहा। यह भी बंद हो गया। इसके बाद मंगेश परिवार सांगली चला गया और वहीं बस गया।
सांगली में दीनानाथ ने फिल्म कंपनी शुरू करने के लिए पत्नी के गहने तक बेच डाले। अपने मराठी नाटकों को उन्होंने फिल्मों में ढाला पर हाथ लगी नाकामी। तंगी की हालत में वे सांगली छोड़ पुणे चले आये। यहां वे आकाशवाणी में गाने लगे और उससे मिले थोड़े-बहुत पारिश्रमिक से ही परिवार की गाड़ी किसी तरह घिसटने लगी।
आर्थिक तंगी और कुंठाओं को दीनानाथ ज्यादा दिन झेल नहीं पाये। 1942 में वे दुनिया छोड़ गये। तब लता महज 13 साल की थीं। भाई हृदयनाथ और चारों बहनें बहुत छोटी थीं। उसी दिन से परिवार को पालन का भार लता के कंधों पर आ गया। गुड़ियों से खेलने की उम्र में ही लता परिवार की रोटी जुटाने की जद्दोजेहद में जुट गयीं।
आसान नहीं था जीवन-संग्राम का शुरुआती अध्याय। एक छोटी-सी बच्ची को अपने परिवार वालों के लिए निवाले जुटाने के लिए जमीन-आसमान के कुलाबे एक करने पड़ते थ। स्टूडियो दर स्टूडियो की खाक छाननी पड़ती थी। उनकी कर्मयात्रा मास्टर विनायक की प्रफुल्ल पिक्चर्स की मराठी फिल्म ‘पहिली मंगला गौर’ गायन और अभिनय से शुरू हुई। अपने पहले दिन के अनुभव के बारे में उन्होंने कभी कहा था-‘मुझे मेकअप से नफरत थी। जगमगाती रोशनी के बीच खड़े होने से हिचकती थी। लेकिन करती भी क्या। अपने घर की अकेली कमाऊ बेटी थी मैं। जिस दिन पहली बार काम पर गयी, घर में खाने को कुछ भी नहीं था। ऐसे में मेरे पास कोई चारा नहीं था। ’
मास्टर विनायक की कंपनी में उन्होंने 15 रुपये माहवार पर काम शुरू किया। सोचने में कितना अजीब लगता है कि वही लता बाद में एक गीत गाने का हजारों रुपये पारिश्रमिक पाने लगीं। 1947 में मास्टर विनायक की मौत के बाद प्रफुल्ल पिक्चर्स कंपनी बंद हो गयी। उसके बाद लता बंबई (अब मुंबई ) आ गयीं। वहां उन्होंने पहले उस्ताद अमान अली खां फिर अमानत अली खां से बाकायदा शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली। 1947 तक उनका काफी नाम हो गया था। फिल्म ‘मजबूर’ में उन्हें गायन का मौका संगीकार गुलाम हैदर ने दिया। फिल्मिस्तान के सुबोध मुखर्जी लता की आवाज से संतुष्ट नहीं थे लेकिन गुलाम हैजर अपने निश्चय पर अड़े रहे। उन्होंने मुखर्जी से यहां तक कह डाला-‘ देखना एक दिन यह लड़की नूरजहां (उस वक्त की प्रसिद्ध गायिका-नायिका) को भी पीछे छोड़ देगी।’ कहना न होगा कि उनकी यह बात सौ फीसदी सच साबित हुई। बाद में नूरजहां तक लता की प्रशंसिका बन गयी थीं। उसके बाद लता ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और फिल्मी पार्श्वगायन के क्षेत्र में दिन ब दिन कामयाबी की नयी मंजिलें तय करती रहीं। पुराने संगीतकारों अनिल विश्वास, नौशाद, हुसनलाल-भगतराम, खेमचंद्र प्रकाश, शंकर-जयकिशन और रोशन से लेकर नये संगीतकारों के निर्देशन में भी लता ने बखूबी गाया।
दशकों से सुबह-शाम, दिन-रात देशवासियों के कानों में मिसरी की मिठास घोलती आई है लता की आवाज। उत्सव, समारोहों में गूंजते रहे उनके नगमे। सिर चढ़ कर बोलता रहा उनकी आवाज का जादू। हर वर्ग, हर हैसियत के व्यक्ति के दिल को छूती है उनकी कोयल सी बोली। नयी गायिकाओं के आने लोकप्रिय होने के बाद भी अरसे तक लता की आवाज का जादू बरकरार रहा। उनकी आवाज में जो वैविध्य है वही उसकी विशेषता है। एक प्रेमिका का दर्द, मनुहार, शोखी को वे बखूबी अपनी पुरअसर आवाज के जरिये उभार सकती हैं। वहीं उनकी आवाज में मां का वात्सल्य, पुजारन की श्रद्धा और शिशु की चपलता भी बड़ी खूबी से उनके स्वरों में ढलती है। एक शब्द में भारत के लिए ईश्वर का वरदान है लता।
वे भाषाओं की सीमा में नहीं बंधीं, हर भाषा में गाया और खूब गाया। गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड में उनका नाम आया सबसे अधिक गीत गाने वाली गायिका के रूप में। 1946 से गा रही लता की एक खूबी यह भी है कि उन्होंने जिस भी हीरोइन के लिए गाया उसकी आवाज से अपने गाने का अंदाज मिलाने की उन्होंने हमेशा कोशिश की।
किसी ने उनकी आवाज की विविधता के मद्देनजर एक बार मजाक में कहा था-‘लता को दोहरा पारिश्रमिक दे दिया जाये तो वे हीरो-हीरोइन दोनों के लिए गा सकती हैं। ’ लता की एक विशेषता यह भी रही है कि उनकी उम्र ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी, उनकी आवाज की मिठास और गाढ़ी होती गयी। उनका स्वर और मधुर होता गया।
1 comments:
अच्छा आलेख!
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