बुधवार, फ़रवरी 17, 2010

फिर आयीं ऐतिहासिक फिल्में

हिंदी सिनेमा का इतिहास-3
राजेश त्रिपाठी

बाद में मां की भूमिकाओं के लिए मशहूर निरुपा राय कभी धार्मिक फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री थीं। उन्होंने कुल मिला कर तकरीबन 40 धार्मिक-पौराणिक फिल्मों में काम किया। वे चार फिल्मों में पार्वती और तीन में सीता की भूमिका में आयी थीं। परदे की देवी के रूप में वे इतना ख्यात हो गयी थीं कि जब उन्होंने ‘सिंदबाद द सेलर’, ‘चालबाज’ और ‘बाजीगर’ जैसी स्टंट फिल्मों में काम किया , तो दर्शकों का उनकी इन फिल्मों के प्रति रुख अच्छा नहीं रहा। धार्मिक फिल्मों में उनकी कितनी धूम थी , इसका पता इससे चलता है कि लोग जिन सिनेमाघरों में उनकी धार्मिक फिल्में देखने जाते, वहां पूजा करते थे। उनकी धार्मिक फिल्में थीं-महासती सावित्री, सती मदालसा, नवरात्रि, चक्रधारी, रामस्वामी, वामन अवतार,गौरी पूजा, शेषनाग, अप्सरा, चंडी पूजा, जय हनुमान, राम हनुमान युद्ध, नागमणि, श्री रामभक्त विभीषण, नरसी भगत, हर हर महादेव, द्वारकाधीश आदि। इसके बाद उन्होंने कई सामाजिक फिल्मों में भूमिकाएं निभायीं और बाद में चरित्र भूमिकाएं करने लगीं। जयश्री गड़कर भी धार्मिक फिल्मों की होरोइन के रूप में काफी ख्यात हुईं। अपने जमाने में शोभना समर्थ भी धार्मिक फिल्म ‘रामराज्य’ की सीता के रूप में बहुत ख्यात हुईं। बाद के दिनों में अनिता गुहा, कानन कौशल आदि काफी लोकप्रिय हुईं।
बहरहाल, फिल्मों के निर्माण के शुरू के दौर में 60 प्रतिशत से भी अधिक फिल्में धार्मिक-पौराणिक कथानक पर बनती थीं। बाद के वक्त में बेरोजगारी से पीड़ित युवा वर्ग की रुचि धर्म में नहीं रह गयी। वह रोजी-रोटी की जुगाड़ में तबाह रहने लगा। ऐसे में धार्मिक फंतासी से उसे खुशी नहीं मिलती थी। वह हलकी-फुलकी मनोरंजक फिल्मों की ओर मुड़ गया। धार्मिक फिल्मों से युवा वर्ग विमुख हुआ, तो ऐसी फिल्में महज पुरानी पीढ़ी के लोगों तक सीमित रह गयीं।
धार्मिक फिल्मों के बाद ऐतिहासिक फिल्मों का दौर आया। यह भी काफी लंबा खिंचा। रंजीत स्टूडियो ने 1934 में ‘राजपूतानी’ पेश की। इतिहास के प्रसिद्ध चरित्रों और घटनाओं पर फिल्में बनने लगीं। उस वक्त देश का माहौल ऐसा था , जिसमें ऐसी फिल्में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा सकती थीं। वी. शांताराम ने एक फिल्म निर्देशित की ‘उदय काल’ जिसका नाम उन्होंने ‘फ्लैग आफ फ्रीडम’ (स्वराज्य तोरण) रखा। भला अंग्रेज सरकार को यह नाम क्यों भाने लगा। इस नाम पर एतराज हुआ और यह फिल्म ‘थंडर आफ हिल्स’ बन गयी। यह फिल्म वी. शांताराम ने प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर में बनायी थी और इसमें उनकी शिवाजी की भूमिका की बड़ी प्रशंसा हुई थी। 18 नवंबर 1901 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में जन्में वणकुद्रे शांताराम ने 12 वर्ष की अल्पायु में गंधर्व नाटक मंडली कोल्हापुर में छोटी-छोटी भूमिकाओं से अपना कैरियर शुरू किया। धीरे-धीरे अपनी मेहनत और लगन से आगे बढ़ते गये। 1929 में उन्होंने कोल्हापुर में प्रभात फिल्म कंपनी चार अन्य लोगों की मदद से स्थापित की। इसके अंतर्गत उन्होंने ‘माई क्वीन’ (रानी साहिबा) , ‘फाइटिंग ब्लेड (खूनी खंजर), चंद्रसेना और स्टोलन ब्राइड (जुल्म) बनायी। उनकी ये सभी फिल्में अवाक थीं।1931 में ‘आलमआरा’ से नयी क्रांति आयी। फिल्मों ने बोलना सीख लिया। अब तक फिल्में शैशव को पीछे छोड़ किशोरावस्था में पहुंच चुकी थीं। बोलती फिल्मों का युग आया , तो शांताराम की फिल्मों का भी नया दौर आया। उनकी पहली बोलती फिल्म थी ‘अयोध्या का राजा’ (1932)। 1942 में उन्होंने बंबई में राजकमल कलामंदिर की स्थापना की। प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर में ‘जलती निशानी’, ‘सैरंध्री’, ‘अमृत मंथन’, ‘धर्मात्मा’, ‘अमर ज्योति’, के अलावा ‘दुनिया न माने’, ‘आदमी’ और ‘पड़ोसी’ जैसी सोद्देश्य फिल्में देने के बाद उन्होंने राजकमल कलामंदिर के बैनर तले ‘शकुंतला’, ‘माली’, ‘पर्वत पर अपना डेरा’, ‘डाक्टर कोटणीस की अमर कहानी’, ‘मतवाला शायर’, ‘अंधों की दुनिया’, ‘बनवासी’, ‘भूल’, ‘अपना देश’, ‘दहेज’, ‘परछाईं’, ‘अमर भोपाली’, ‘सुंरग’, ‘सुबह का तारा’, ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘तूफान और दिया’, ‘दो आंखें और बारह हाथ’, ‘नवरग’, ‘फूल और कलियां’, ‘स्त्री’, ‘सेहरा’, ‘गीत गाया पत्थरों ने’, ‘लड़की सहयाद्री की’,‘बूंद जो बन गयी मोती’, ‘जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली’ बनायी। शांताराम की फिल्मों की एक विशेषता रही है कि वे हर मायने में औरों से अलग होतीं। प्रस्तुतीकरण में नवीनता, संगीत में नवीनता और गायन में भी नवीनता।(आगे पढ़ें)

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