गुरुवार, अक्तूबर 24, 2013

चला गया सुर का शाहकार

  मन्ना दे का जाना संगीत के एक युग का अंत
राजेश त्रिपाठी
गुरुवार 24 अक्तूबर की सुबह भारतीय संगीत जगत के लिए एक दुखद खबर लेकर आयी। लंबी बीमारी झेलने के बाद इसी दिन भारत के महान संगीत शिल्पी, जनप्रिय गायक मन्ना दे ने बेंगलूरु में अंतिम सांस ली। वे 94 वर्ष के थे। उन्हें पिछले जून महीने में फेफड़े के संक्रमण और किडनी की तकलीफ के लिए बेंगलूरु के नारायण हृदयालय में भरती किया गया था। वहीं हृदयाघात से उनकी मृत्यु हुई। मन्ना दे सशरीर हमारे बीच भले न हों लेकिन अपने गाये अमर गीतों में वे हमेशा जीवित रहेंगे और अपने चाहने वालों के दिलों में घोलते रहेंगे संगीत के मधुर रंग। 1 मई 1919 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में जन्में मन्ना दा भाग्यशाली थे कि उनको संगीत गुरु ढूंढ़ने दूर नहीं जाना पड़ा। घर में ही उन्हें गुरु चाचा कृष्णचंद्र दे (के सी डे के नाम से मशहूर) मिल गये। के.सी. डे के नेत्रों की ज्योति 13 वर्ष की उम्र में ही चली गयी थी। के.सी. डे शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ थे और उनके हाथों ही मन्ना दा की संगीत की शिक्षा शुरू हुई। के.सी. डे के साथ ही मन्ना दा बंबई (अब मुंबई) चले आये। यहां के.सी. डे फिल्मों में संगीत देने और गायन करने के साथ-साथ अभिनय भी करने लगे। फिल्मों में गाने का पहला अवसर भी उन्हें चाचा के संगीत निर्देशन में फिल्म तमन्ना (1942) में मिला। उसके बाद फिर मन्ना दा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने जीवन में उन्होंने 4000 से भी ज्यादा गीत गाये और अनेकों सम्मान, पुरस्कार जीते। उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्मश्री (1971), पद्मभूषण (2005) व दादा साहब फालके सम्मान (2007) में मिला।
      मन्ना दे ने हिंदी फिल्मों में गाने के साथ ही बंगला फिल्मों भी गाना गाया। इसके अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में उन्होंने बखूबी गाया। उन्होंने फिल्मी गीतों के अलावा गजल, भजन व अन्य गीत भी पूरी खूबी से गाये। जब मशहूर कवि डा. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला को संगीतबद्ध कर गायन का प्रश्न आया तो उसके लिए भी एकमात्र मन्ना दा का ही नाम आया। मन्ना दा ने इस अमरकृति को बड़ी तन्मयता और पूरे मन से गाया। हिंदी फिल्मों में उन्होंने कई यादगार गीत गाये जो उन्हें रहती दुनिया तक अमर रखेंगे। 1953 से लेकर 1976 तक का समय हिंदी फिल्मों में पार्श्वगायन का सबसे सफल समय था। उनके गायन की सबसे बड़ी विशेषता थी उसमें शास्त्रीय संगीत का पुट होना।
      मन्ना दा का नाम प्रबोधचंद्र दे था लेकिन जब वे गायन के क्षेत्र में आये तो मन्ना दे के नाम से इतने मशहूर हुए कि प्रबोधचंद्र को फिर किसी ने याद नहीं किया। उन्होंने स्काटिश चर्च कालेजिएट स्कूल और स्काटिश चर्च कालेज शिक्षा पायी। खेलकूद में उनकी काफी दिलचस्पी थी कुश्ती और बाक्सिंग में वे पारंगत थे। विद्यासागर कालेज से उन्होंने स्नातक परीक्षा पास की। बाल गायक के रूप में वे संगीत कार्यक्रम पेश करने लगे। स्काटिश चर्च में अध्ययन के दौरान वे अपने सहपाठियों का मनोरंजन गायन से करते थे। उन्होंने इन्हीं दिनों चाचा के.सी. डे और उस्ताद दाबिर खान से संगीत की शिक्षा ली। कालेज की गायन प्रतियोगिताओं में लगातार तीन बार उन्होंने प्रथम पुरस्कार जीता।
      बंबई (अब मुंबई) आने के बाद मन्ना दा पहले अपने चाचा के साथ उनके संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे। उसके बाद वे सचिन दा (जो उनके चाचा के शिष्य थे) के साथ संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे। इस बीच संगीत की उनकी शिक्षा भी जारी रही। उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की शिक्षा ली।
      पार्श्वगायन की शुरुआत उन्होंने तमन्ना (1942) में की । इसमें उन्होंने अपने चाचा के. सी. डे के निर्देशन में सुरैया के साथ ही एक युगल गीत 'जागो आयी ऊषा पंक्षी' गाया। इसक बाद तो फिर सिलसिला चल पड़ा और मन्ना दा ने एक के बाद एक शानदार गीत गाये। सचिन देव बर्मन से लेकर अपने समय के तमान संगीत निर्देशकों के साध उन्होंने गीत गाये। उनको सबसे बड़ा मलाल यह रहा कि उनके गीत ज्यादातर चरित्र अभिनेताओं या हास्य कलाकारों पर फिल्माये जाते थे। नायकों पर बहुत कम ही फिल्माये गये। 1948 से लेकर 1954 तक उनके गायन का चरम समय था। उन्होंने न सिर्फ शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत गाये अपितु पश्चिमी संगीत पर आधारित गीत भी बखूबी गाये। राज कपूर के लिए उन्होंने शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फिल्म आवारा, बूट पालिश, श्री 420, चोरी चोरी, मेरा नाम जोकर फिल्मों के गीत गाये जो काफी लोकप्रिय हुए। उन्होंने वसंत देसाई, नौशाद, रवि, ओ.पी. नैयर, रोशन, कल्याण जी आनंद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर. डी. बर्मन, अनिल विश्वास, सलिल चौधरी आदि के साथ काम किया।
 जो गीत उनको अमर रखेंगे उनमें से कुछ हैं-तू प्यार का सागर है (सीमा), ये कहानी है दिये की और तूफान की (दिया और तूफान), ऐ मेरे प्यारे वतन (काबुलीवाला), लागा चुनरी में दाग( दिल ही तो है), सुर ना सजे क्या गाऊं मैं सुर के बिना ((बसंत बहार), कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झनकार लिये( देख कबीरा रोया), पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी (मेरी सूरत तेरी आंखें), झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया (मेरे हुजूर), चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया (तीसरी कसम), ओ मेरी जोहरा जबीं (वक्त), तुम गगन के चंद्रमा हो (सती सावित्री), कसमे वादे प्यार वफा लब (उपकार), यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी (जंजीर),जिदगी कैसी है पहेली (आनंद), ये रात भीगी-भीगी ये मस्त हवाएं (चोरी चोरी), ये भाई जरा देख के चलो (मेरा नाम जोकर), प्यार हुआ इकरार हुआ (श्री 420)।
      कुछ कलाकारों पर उनकी आवाज इतनी फिट बैठती थी कि लगता है परदे पर कलाकार खुद अपनी आवाज में गा रहा है। फिल्म 'उपकार' में मनोज कुमार ने मलंग के रूप में जब तब के मशहूर खलनायक को चरित्र अभिनेता के रूप में मलंग चाचा बना कर एक नया रूप दिया तो मन्ना दे की आवाज प्राण पर बहुत सटीक बैठी। लोगों को परदे पर लगा कि जैसे प्राण खुद अपनी आवाज में 'कसमे वादे प्यार वफा'  गीत  गा रहे हैं। यही बात फिल्म 'जंजीर' के लोकप्रिय गीत 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' के लिए भी कही जा सकती है।
      अपनी निजी जिंदगी में बहुत ही अंतर्मुखी रहनेवाले, बहुत कम बोलने वाले मन्ना दा लोगों से बहुत कम ही मिलते-जुलते थे। उन्हें पार्टियों में जाना पसंद नहीं था। किसी से मिलते तो बस मुस्करा देते। संगीत उनके लिए पुजा और तपस्या की तरह था। वे अकसर ऐसा कहते भी थे। जब किसी ने एक बार उनसे पूछा कि दादा सभी गायक तो गाते वक्त आंखें खोले रहते हैं आप आंख बंद क्यों कर लेते हैं। उनका जवाब था-संगीत मेरे लिए पूजा है, तपस्या है। तपस्या करते वक्त या पूजा में लीन रहते वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। संगीत मेरे लिए भी पूजा है इसीलिए गाते वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। 19 दिसंबर 1953 में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारन से शादी की। पत्नी सुलोचना कुमारन की मृत्यु कैंसर से 18 जनवरी 2012 को हो गयी। उन्होंने जब यह देखा कि हिंदी फिल्मों से उनके तरह के गीतों का जमाना अब नहीं रहा तो वे पत्नी के साथ बेंगलूरू में ही बस गये थे। उनकी दो बेटियां हैं शुरोमा और सुनीता। जिनमें से एक अमरीका में बस गयी है और दूसरी बेंगलूरू में है। मन्ना दा बेटी के पास बेंगलूरू में ही रहते थे। मुंबई में उन्होंने पचास साल से भी अधिक समय गुजारा। आज मन्ना दा नहीं है तो उनका गाया फिल्म 'आनद' का गीत 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये रुलाये, कभी ये हसाये'। वाकई संगीत के उन प्रेमियों को जो शास्त्रीय संगीत को मन-प्राण से पसंद करते हैं मन्ना दा रुला गये। मन्ना दा जैसे कलाकार कभी मरते नहीं वे अपने गीतों में हमेशा अमर रहते हैं। मन्ना दा के भी भावभरे या चुलबुले गीत बजेंगे तो कभी वे दिल को लुभायें के तो कभी गमगीन कर देंगे। मन्ना दा नहीं होंगे लेकिन उनकी आवाद ताकयामत संगीत प्रेमियों के दिलों में राज करती रहेगी और उनको अमर रखेगी।

शनिवार, जुलाई 13, 2013

प्राणहीन हुआ बॉलीवुड


चला गया कर्मनिष्ठ, ईमानदार भला आदमी
-राजेश त्रिपाठी

अगर किसी एक ऐसे शख्स का नाम जानना हो जो एक साथ कई व्यक्तित्व जी चुका हो, जिसे फिल्मी परदे पर देख बड़ों-बड़ों के दिल सहम जाते थे और जो परदे के बाहर बहुत ही प्यारा, मददगार और सबका यार हो तो आपकी तलाश बस एक नाम पर आकर टिक जायेगी। वह नाम है प्राण। प्राण जिन्होंने 6 दशक तक के लंबे अपने फिल्मी कैरियर में जिन अमर पात्रों को जिया, उनके साथ इस कदर खुद को आत्मसात कर लिया कि उन्हें उस किरदार से अलग नहीं किया जा सकता था। हालांकि उन्होंने 93 साल की लंबी जिंदगी पायी लेकिन उनके जाने से फिल्मों के एक युग का अंत हो  गया है। आज बॉलीवुड प्राणहीन हो गया है। प्राण हिंदी फिल्मों के एकमात्र ऐसे खलनायक थे जिन्होंने अपने चरित्रों को जितनी विविधता दी शायद ही कोई दे पाया हो। शायद यही वजह थी कि उनको फिल्मो के बड़े-बड़े नायकों तक से ज्यादा पारिश्रमिक मिलता था। आज जब वे नहीं हैं तो सब उन्हें अपने ढंग से याद कर रहे हैं। अभिनेता रजा मुराद ने उनके बारे में कहा कि-ताजमहल एक है, कश्मीर एक है,  हिमालय एक है, लता मंगेशकर एक है उसी तरह प्राण एक हैं। दूसरा प्राण अब नहीं पैदा होगा। वे परदे पर दानव और परदे के बाहर महामानव थे। सांसद और मंत्री राजीव शुक्ल ने कहा-इस शताब्दी में दूसरा प्राण नहीं होगा।
    अमिताभ, सुषमा स्वराज, प्रियंका चोपड़ा और बॉलीवुड व राजनीति से  जुड़ी कई हस्तियों ने प्राण साहब के निधन पर शोक जताया और उन्हें अनुपम और अतुलनीय बताया। प्राण ने अपने जीवन में फिल्मफेयर, पद्मभूषण, विलेन आफ मिलेनियम जैसे अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले लेकिन फिल्मों के लिए सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान दादा साहब फालके पुरस्कार को उन तक पहुंचने में काफी देर लगी। यों तो यह पुरस्कार कई कलाकारों तक  पहले पहुंच गया लेकिन उन तक जब यह मई 2013 में पहुचा इनकी जिदगी ह्वीलचेयर में सिमट कर रह गयी थी और स्मृति  भी उनका साथ छोड़ चुकी थी। जिन लोगों ने भी टीवी चैनल्स पर केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी द्वारा उनके मुंबई स्थिति घर में उनको दादा साहब फाल्के पुरस्कार देते देखा है, उन्होंने देखा होगा कि प्राण किस तरह चेतनाहीन से मूक दर्शक बने बैठे थे। शायद उन्हें यह भान भी नहीं हो रहा होगा कि वे देश के सर्वोच्च सम्मान से नवाजे जा रहे हैं। प्राण के बारे में जितना कुछ कहा जाये कम है। फिल्मी कलाकारों के बारे में फिल्म निर्माता और निर्देशकों की ज्यादातर यही शिकायत रहती थी कि वे सेच पर देर से आते हैं लेकिन प्राण साहब समय के इतने पाबंद कि 10 बजे के शेड्यूल के लिए
 साढ़े 9 बजे ही पहुंच जाते हैं। कहते हैं एक बार निर्माता-निर्देशक सुभाष घई ने उन से हाथ जोड़ कर कहा था- प्राण साहब आपकी शूटिंग दो बजे शरू होनी है आप साढ़ें नौ बजे आने का कष्ट न किया करें।
    पर प्राण क्या करते काम तो उनके लिए पूजा की तरह था और स्टूडियो जैसे मंदिर। वे अभिनय नहीं किया करते थे बल्कि उन चरित्रों को जिया करते थे जो उन्हें दिये जाते थे। वे अपनी भूमिकाओं के प्रति कितने गंभीर थे इसका पता इसी से चलता है कि वे अपने चरित्र का गेटअप वगैरह खुद तय किया करते थे। उनकी सबसे बड़ी ताकत थी उनकी बुलंद आवाज, रग-रग से उभरते अभिनय के सजीव रंग। प्राण परदे की जिंदगी में चाहे जितने भी खूंखार दिखते हों असल जिंदगी में वे उतने ही भले, भद्र और परोपकारी पुरुष थे। कई हस्तियों को उनका उपकार मिला लेकिन प्राण साहब ने कभी इसका प्रचार नहीं किया। क्रिकेटर कपिल देव एक बार काफी चोटिल हो गये। इस इलाज के लिए उस वक्त बीसीसीआई के पास पैसा नहीं था। जब इसका पता प्राण साहब को चला तो उन्होंन कहा कि कपिल के इलाज में जो भी खर्च आयेगा, वे देंगे। यह कपोल कल्पित कहानी नहीं खुद कपिल की जुबानी इसे सुना गया है।
    प्राण साहब के बारे में तरह-तरह की बातें प्रचलित हैं। कहते हैं कि वे जब अपनी कार में मुंबई की सड़कों पर गुजरते तो सड़क पर खड़े लड़के डर कर भागते और कहते -भागो साला प्राण आ रहा है। कहते हैं जब किसी ने उनसे िसके बारे में पूछा कि क्या उन्हें इस तरह की गालियां सुन कर गुस्सा नहीं आता तो वे हंसते हुए कहते- ये गाली नहीं पुरस्कार है। यह मेरी कामयाबी की मिसाल है कि मेरा खौफ परदे से बाहर समाज तक में उतर आया है। लोग तो सिनेमाघर के बाहर आते ही फिल्म और फिल्म के किरदार को भूल जाते हैं लेकिन मुझे तो लोग परदे के बाहर भी उसी रूप में देख रहे हैं।
    वे लोगों से कहते कि जब कभी उनके दोस्त अपने बच्चों को लेकर उनसे मिलने आते तो उनके बच्चे अपने माता-पिता के पीछे दुबके रहते। ये प्राण को अच्छा लगता था क्योंकि वे मानते थे कि जिस दिन इन बच्चों का भय खत्म हो जायेगा और ये सामने आ जायेंगे उस दिन मैं समझूंगा कि अब मैं नाकाम हो गया। बॉलीवुड के इस सबसे बड़े खलनायक की जिंदगी भी अजीब थी। वे बनना चाहते थे फोटोग्राफर यानी कैमरे के पीछे की जिंदगी उन्होंने चुनी थी लेकिन उन्हें तो कैमरे के सामने छाना और नाम कमाना था। अमिताभ बच्चन आज सदी का सितारा है लेकिन यह हकीकत है कि उनकी फिल्मी जिंदगी ने अगर कामयाबी की रोशनी देखी  तो उसका श्रेय भी प्राण को ही जाता है। कहते हैं कि फिल्म जंजीर  का रोल प्रकाश
 मेहरा देव आनंद को देना चाहते थे लेकिन अमिताभ का नाम उन्हें प्राण ने ही सुझाया। कहना नहीं होगा कि फिल्म जंजरी सुपर-डुपर हिट हुई ओर उसके बाद अमिताभ ने पीचे मुड़ कर नहीं देखा और लगातार कामयाबी की ऊंचाइयां छूते हुए सदी का सितरा बनने का गौरव हासिल किया। अमिताब प्राण साहब का बहुत ही सम्मान करते थे।
    प्राण हिंदी फिल्मों के प्राण थे। उनका पार्थिव शरीर आज भले ही हमारे बीच नहीं है लेकिन अपनी फिल्मों और अपने जानदार अभिनय के बल पर वे आनेवाली कई सदियों तक याद आते और लोगों में जिंदगी का जज्बा भरते रहेंगे। प्राण साहब जैसे लोग तो अमर हो जाते हैं। उन्होंने जमाने को इतना दिया है, उनके लोगों पर इतने उपकार हैं कि वे रहती दुनिया तक लाखों लोगों में उम्मीद और हौसला बन कर जीते रहेंगे।
    प्राण साहब का पुरा नाम प्राण किशन सिकंद था। उनका जन्म 12 फरवरी 1920 को दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में हुआ था। उनके पिता लाला केवलकिशन सिकंद सिविल इंजीनियर  थे। उनकी तबादले की नौकरी थी इसलिए प्राण को भी जहां-जहां पिता तबादले में जाते जाना पडता था। इस तरह उनकी शिक्षा भी-मेरठ, कपूरथला, उन्नाव, देहरादून व रामपुर में हुई। प्राण साहब को फोटोग्राफी का बड़ा शौक था, उन्होंने इसके लिए दिल्ली की दास एंड कंपनी में एप्रेंटिश फोटोग्राफर के रूप में नौकरी शुरू की। बाद में उनका तबादला शिमला कर दिया गया। वहीं उन्होंने अपने अभिनय जिंदगी की एक तरह से शुरुआत की। वहां रामलीला पर आधारित एक नाटक में उन्होंने सीता की भूमिका निभायी थी जिसमें उनके साथी अभिनेता थे मदन पुरी। उनके फिल्मी अभिनय की शुरुआत लाहौर में पंजाबी फिल्म यमला जाट (1940) से हुई । इसके बाद तकरीबन 21 पंजाबी फिल्मों में वे हीरो के रूप में आये और ये फिल्में बहुत हिट रहीं। हिंदी फिल्म में उनकी शुरुआत खानदान (1942) से हुई। इसमें उनकी हीरोइन नूरजहां थीं जो उम्र में उनसे काफी छोटी थीं। 1945 में उनकी शादी शुक्ला अहलूवालिया से हुई। प्राण साहब के दो बेटे  और एक बेटी है। प्राण साहब देश विभाजन के बाद वे काम की तलाश में बंबई (अब मुंबई) चले आये। यहां लेखक शहादर हसन मंटो और अभिनेता श्याम की मदद से उन्हें शाहिद लतीफ की फिल्म जिद्दी (1948) में खलनायक की भूमिका मिली। इसमें देव आनंद और कामिनी कौशल की प्रमुख भूमिकाएं थीं। यह उनके अभिनय की दूसरी शुरुआत थी(लाहौर फिल्म कंपनी के बाद)। उनका यह प्रयास सफल रहा और 1948 से 1954 तक लगातार खलनायक की भूमिकाएं निभाते हुए उन्होंने इतनी कामयाबी हासिल की कि फिल्मों के सफलता के लिए उनको रखना जरूरी माना जाने लगा। फिल्मों के स्टारकास्ट का नाम देते वक्त अंत मे मोटे अक्षरों में लिखा जाने लगा - एंड प्राण। जैसे सारे कलाकारों पर यह एक नाम ही भारी पड़ने लगा। फिल्म की सफलता की गारंटी बन गया प्राण का नाम। उस समय के बड़े सितारों के साथ भी प्राण साहब ने काम किया। उस वक्त के बड़ें सितारों दिलीप कुमार , राज कपूर, देव आनंद में से कोई रहा हो उनकी फिल्मों में जब भी परदे पर प्राण आते दर्शक उनका स्वागत तालियों से करते। कई दृश्यों मे तो वे इन बड़े नामों पर इतने भारी पड़ते कि प्राण साहब के सामने वे पासंग लगने लगते।
 
    उनकी प्रमुख फिल्में हैं- कश्मीर की कली, खानदान, औरत, बड़ी बहन, जिस देश में गंगा बहती है, हॉफ टिकट, उपकार, पूरब और पश्चिम, डॉन । उन्होंने तकरीबन 400 पिल्मों में काम किया.। खानदान (1942), पिलपिली साहेब (1954) और हलाकू (1956) जैसी फ़िल्मों में मुख्य अभिनेता की भूमिका निभायी। उनका सर्वश्रेष्ठ अभिनय मधुमति (1958), जिस देश में गंगा बहती है (1960), उपकार (1967), शहीद (1965), आँसू बन गये फूल (1969), जॉनी मेरा नाम (1970), विक्टोरिया नम्बर 203 (1972), बेईमान (1972), ज़ंजीर (1973), डॉन (1978) और दुनिया (1984) फ़िल्मों में माना जाता है। राम और श्याम, धर्मा, साधू और शैतान, नन्हा फरिश्ता, परिचय आदि में भी उनकी भूमिकाएं खूब सराही गयीं।  राम और श्याम  के कड़क खलनायक के रूप में वे दर्शकों में अपनी खलनायकी का खौफ जमाने में खूब कामयाब रहे। मानाकि इसमें उनके साथ उस वक्त के ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार डबल रोस में थे लेकिन कई दृश्यों में प्राण साहब दिलीप पर भारी पड़े।
    विक्टोरिया नंबर 203 में उन्होंने अशोक कुमार के साथ मिल कर कामेडी भी खूब की। एक बिन ताले की चाभी पाकर मारे-मारे फिरने वाले दो मस्तमौला दोस्तों की भूमिका में दोनों खूब जमे। इसका एक गाना-दो बेचारे बिना सहारे देखो खोज-खोज कर हारे, बिन ताले की चाबी लेकर फिरते मारे मारे इन पर फिल्माया गया था और इसमें दोनों ने बहुत अच्छा अभिनय किया। प्राण ने बाद में अपनी बुरे आदमी की इमेज से बाहर आने की ख्वाहिश की। इसमें कई लोगों ने उन्हें अलग ढंग का रोल देने का खतरा मोल लिया। एक जमे-जमाये खलनायक को चरित्र भूमिका और सकारात्मक भूमिका में लाना जोखिम ही था। हो सकता था कि अपने खलनायक को लोग उस रूप में पसंद न करें लेकिन प्राण ने जो भी भूमिका की बहुत खूब की। उपकार (1967) में मनोज कुमार ने उन्हें एक पैर से लंगड़े मलंग चाचा की भूमिका दी। मलंग चाचा जो अनाचार, भ्रष्टाचार और अत्याचार के खिलाफ  आवाज बुलंद करता है। वह आगाह करता है कि दुनिया के सारे रिश्ते-नाते, कस्मे-वादे झूठे हैं। यहां सब मतलब का व्यवहार है। कस्मे-वादे प्यार वफा सब बातें है बातों का क्या, कोी किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या गीत उन पर फिल्माया गया। इस पर उन्होंने इतना शानदार अभिनय किया कि पूरी फिल्म में अगर कोई चरित्र किसी के जेहन में असरदार ढंग से उतरा तो वह मलंग चाचा का था। इसके बाद से वे सकारात्मक भूमिकाएं निभाने लगे और उसमें भी अपने अभिनय का उन्होंने लाहा मनवा लिया।
    प्रकाश मेहरा कि फिल्म जंजीर  में शेर खान की भूमिका में उनका अभिनय लोगों को भुलाये नहीं भूलेगा। यारी है ईमान मेरा यारमेरी जिंदगी गाने पर उनके ठुमके और एक काबुली  पठान के रूप में उनका रौबदार अभिनय इस फिल्म की जान था। कहते हैं कि अमिताभ प्राण साहब के रोल और रुतबे से सहमे-सहमे से थे। इस फिल्म के एक सीन में उनको गुस्से से एक कुरसी परठोकर मारनी थी लेकिन वे ऐसा कर नहीं पा रहे थे बाद में खुद प्राण साहब ने उनका हौसला बढ़ाया। प्राण और अमिताभ बच्चन के बीच बहुत ही दोस्ताना संबंध थे। कहते हैं कि मदद मांगने वालों की लाइन उनके द्वार पर हर हमेश लगती थी और वे किसी को निराश नहीं करते थे। सबकी यथा संबव मदद करते थे.। वैसे तो राजनीति पर उनकी कोई रुचि नहीं थी लेकिन राजनीति के नाम पर अनीति, अनाचार या स्वेच्छाचार उनको बरदाश्त नहीं था। यही कारण है कि आपातकाल के समय जब कई मुंह खामोश थे उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठायी। उन्होंने आपातकाल के विरोध में सीदे राष्ट्रपति के पास एक पत्र भेज दिया। इसी तरह मरोरजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता सरकार में भी कुछ ऐसा हुआ कि प्राण साहब को गलत लगा तो उन्होंने खुद मोरारजी देसाई के पास पत्र भेज कर इसकी शिकायत की। वे अपने सहकर्मियों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। यही वजह है कि जब तक हाथ-पैर चलते रहे वे सिने वर्कर्स एसोसिएशन की मदद के लिए प्रयासरत रहे।
उनकी कुछ अन्य फिल्में हैं-सनम बेवफ़ा, दाता , धर्मयुद्ध, धर्म अधिकारी , लव एंड गॉड , दुनिया, शराबी ,नास्तिक, सौतन , क्रोधी , कालिया,      धन दौलत , डॉन , गंगा की सौगन्ध ,अमर अकबर ,एन्थोनी,दस नम्बरी ,शंकर दादा ,सन्यासी ,मज़बूर, कसौटी , ज़ंजीर,बेईमान, हमजोली, यादगार,     जॉनी मेरा नाम     मोती ,    आँसू बन गये फूल ,साधू और शैतान ,एराउन्ड द वर्ल्ड ,दो बदन ,लव इन टोक्यो, सावन की घटा , खानदान , मेरे सनम, गुमनाम,शहीद , मनमौजी ,मुनीम जी        
  अपने अभिनय के लिए प्राण साहब को कई बार फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले।लेकिन कहते हैं कि एक बार फिल्म  बोईमान  के लिए मिलने वाले पुरस्कार को उन्होंने सिर्फ इसलिए ठुकरा दिया था क्योंकि उन्हें बेईमान  के संगीत के लिए शंकर-जयकिशन को  दिये गये पुरस्कार पर एतराज था। उनका विचार था कि पाकीजा  के संगीताकार गुलमा मोहम्मद इस पुरस्कार के ज्यादा हकदार हैं। हर दिल अजीज प्राण साहब को कई बड़े कलाकार तक अपना आदर्श मानते थे। कई लोगों ने तो उनसे वक्त पर स्टूडियो या शूटिंग स्थल पर पहुंचने की बात सीखी। आनेवाली की सदियों तक फिल्म इंडस्ट्री को इस बात का गर्व और गौरव होगा कि उसकी कला को प्राण जैसी एक महान शख्शियत ने समृद्ध किया। लोगों के जेहन में शेर खान का रौबीला चेहरा और मलंग बाबा की नसीहत -कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या ताकयामत गूंजती रहेगी और उन्हें दुनिया के ऊंच नीच से आगाह करती रहेगी। प्राण कभी मरा नहीं करते प्राण मरेंगे नहीं। कभी प्राण ने खुद कहा था कि अभिनय तो उनकी आत्मा में व्याप गया है। आत्मा तो कभी मरती नहीं इसलिए प्राण का अभिनय भी अमर है और आनेवाले समय में वे उसके ही सहारे हर दिल में जिंदा रहेंगे।
  प्राण साहब ने एक से बढ़ कर एक भूमिकाएं हिंदी फिल्मों में निभायीं। उन्होंने कभी एक जैसा चरित्र नहीं निभाया। भले ही भूमिका खलनायक की रही हो लेकिन उन्होंने हर भूमिका में नया गेटअप, नया रंग भरने की कामयाब कोशिश की। देश विभाजन के बाद उन्होंने पिलपिली साहब (1954), हलाकू (1956) व कई अन्य फिल्में। कई फिल्मों में उन्होंने प्रमुख भूमिकाएं कीं जैसे -धर्मा, जंगल में मंगल, गद्दार, राहु केतु, एक कुंआरी एक कुंआरा70 के दशक में विनोद खन्ना, अमिताभ बच्चन, रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, नवनी निश्चल और राजेश खन्ना के साथ कई फिल्में कीं। इनमें राजेश खन्ना को छोड़ कर बाकी सभी कलाकारों से ज्यादा पारिश्रमिक प्राण साहब को मिलता था। खलनायक की भूमिका में प्राण इस तरह रमे कि लगा जैसे वे इसके लिए ही बने हों। वे अपने अभिनय कैरियर से बहुत ही संतुष्ट थे इसीलिए जब उनसे किसी पत्रकार ने पूछा कि अगले जन्म में वे क्या बनना चाहेंगें उनका जवाब था-अगला ही क्यों मेरा वश चले तो आने वाले हर जन्म में मैं प्राण ही बनना चाहूंगा।

शनिवार, नवंबर 12, 2011

कहानी लता मंगेशकर की


-राजेश त्रिपाठी

जिंदगी में जो पहली हिंदी फिल्म ‘सीमा’ देखी थी उसमें लता मंगेशकर का गाया एक प्यारा गीत था- ‘ छोटी-सी गुड़िया की सुनो लंबी कहानी।’ लता का अपना लंबा सुरीला सफर , एक गुड़िया-सी बच्ची के जिंदगी के जद्दोजेहद में अपनी प्रतिभा के बलबूते नाकुछ से लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचने की दास्तान है। इस दास्तान में जहां लोकप्रियता, नाम-दाम और शोहरत की तड़क-भड़क है, वहीं है पल-पल काटता अकेलापन, तरह-तरह के विवाद और उदासियों के अनगिनत लमहे। इस सबसे लड़ कर , दर्द को खामोशी से पीकर लता भारतीय पार्श्वगायन की अदम्य, अनुपमेय साम्राज्ञी बन गयीं।

जीते-जी किंवदंती बन जाने वाली लता की लोकप्रियता देश की सीमाएं लांघ विदेश तक जा पहुंची। 1962 में दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में ‘ ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी’ गाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू तक को द्रवित कर देने वाली लता के गायन में एक खास गुण है। वे जो भी गाती हैं दिल से गाती हैं। हर गीत में वे ऐसी गहराई , ऐसी आत्मा भर देती हैं जो दिल की गहराई तक उतर जाता है और उतना ही व्यापक होता जाता है उसका असर।

कभी लता के बारे में महान गायक (अब स्वर्गीय) कुमार गंधर्व ने कहा था--‘तानपुरे से निकलनेवाला राग गंधार शुद्ध रूप में सुनना हो तो लता का ‘आयेगा आनेवाला गाना सुनो।’

लता के संगीत सफर के साथ जुड़े हैं अनगिनत सम्मान, अकूत सफलताएं। लंदन का अल्बर्ट हाल हो या कोई और ऑडीटोरियम हर जगह श्रोताओं ने उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना। यह उनकी प्रतिभा है जिसका कायल होकर ‘टाइम’ मैगजीन ने ने 1959 में उन्हें ‘भारतीय पार्श्वगायन की निर्विवाद और अपरिहार्य साम्राज्ञी’ माना था।

अपार सफलता पाने वाली लता मंगेशकर का शुरुआती जीवन बहुत कठिन था। पिता दीनानाथ गोवा के मंगेशी से आकर इंदौर में बस गये थे। इंदौर में ही लता का जन्म हुआ। दीनानाथ मशहूर शास्त्रीय गायक थे और उनकी एक ड्रामा कंपनी थी ‘बलवंत संगीत नाटक मंडल’ । इस कंपनी को लेकर वे महाराष्ट्र के कस्बों-शहरों में नाटक किया करते थे। उनकी चार बेटियां (मीना, ऊषा, आशा, लता) और एक बेटा हृदयनाथ पिता के साथ बंजारों का-सा जीवन बिताने को मजबूर थे। आज यहां तो कल वहां। ऐसे में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी कुछ खास नहीं हो पाती थी। पिता ने सोचा क्यों न इन लोगों को भी वही हुनर सिखाते चलें जिसमें वे माहिर हैं। इस तरह से छुटपन से ही ही उन्होंने चारों बेटियों और एक बेटे के मन में संगीत की जोत जला दी जिसका उजाला आगे चल कर दूर-दूर तक संगीत की मिठास लेकर फैलता रहा।

इन बच्चों के अक्सर पिता के साथ उनकी नाटक कंपनी में छोटे-मोटे रोल भी निभाने पड़ते थे। गाना भी पड़ता था। इस तरह धीरे-धीरे पुख्ता होती उनके अंतर में संगीत की बुनियाद। बच्चे घर में होते तब भी पिता की सख्त हिदायत के मुताबिक गीत-संगीत का रियाज जारी रहता। नाटक कंपनी से खास आमदनी तो नहीं थी पर परिवार का किसी तरह गुजारा हो जाता था।

भाई और बहनों में सबसे बड़ी लता को उस वक्त चेचक की बड़ी तकलीफ सहनी पड़ी जब वे सिर्फ दो साल की थीं। उनके दिन ठीक-ठाक गुजर रहे थे लेकिन 1934-35 में अर्देशिर ईरानी की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ नाटक कंपनियों पर कहर बन कर टूटी। एक के बाद एक नाटक कंपनियां बंद होने लगीं। बलवंत संगीत नाटक मंडल भी इससे अछूता न रहा। यह भी बंद हो गया। इसके बाद मंगेश परिवार सांगली चला गया और वहीं बस गया।

सांगली में दीनानाथ ने फिल्म कंपनी शुरू करने के लिए पत्नी के गहने तक बेच डाले। अपने मराठी नाटकों को उन्होंने फिल्मों में ढाला पर हाथ लगी नाकामी। तंगी की हालत में वे सांगली छोड़ पुणे चले आये। यहां वे आकाशवाणी में गाने लगे और उससे मिले थोड़े-बहुत पारिश्रमिक से ही परिवार की गाड़ी किसी तरह घिसटने लगी।

आर्थिक तंगी और कुंठाओं को दीनानाथ ज्यादा दिन झेल नहीं पाये। 1942 में वे दुनिया छोड़ गये। तब लता महज 13 साल की थीं। भाई हृदयनाथ और चारों बहनें बहुत छोटी थीं। उसी दिन से परिवार को पालन का भार लता के कंधों पर आ गया। गुड़ियों से खेलने की उम्र में ही लता परिवार की रोटी जुटाने की जद्दोजेहद में जुट गयीं।

आसान नहीं था जीवन-संग्राम का शुरुआती अध्याय। एक छोटी-सी बच्ची को अपने परिवार वालों के लिए निवाले जुटाने के लिए जमीन-आसमान के कुलाबे एक करने पड़ते थ। स्टूडियो दर स्टूडियो की खाक छाननी पड़ती थी। उनकी कर्मयात्रा मास्टर विनायक की प्रफुल्ल पिक्चर्स की मराठी फिल्म ‘पहिली मंगला गौर’ गायन और अभिनय से शुरू हुई। अपने पहले दिन के अनुभव के बारे में उन्होंने कभी कहा था-‘मुझे मेकअप से नफरत थी। जगमगाती रोशनी के बीच खड़े होने से हिचकती थी। लेकिन करती भी क्या। अपने घर की अकेली कमाऊ बेटी थी मैं। जिस दिन पहली बार काम पर गयी, घर में खाने को कुछ भी नहीं था। ऐसे में मेरे पास कोई चारा नहीं था। ’

मास्टर विनायक की कंपनी में उन्होंने 15 रुपये माहवार पर काम शुरू किया। सोचने में कितना अजीब लगता है कि वही लता बाद में एक गीत गाने का हजारों रुपये पारिश्रमिक पाने लगीं। 1947 में मास्टर विनायक की मौत के बाद प्रफुल्ल पिक्चर्स कंपनी बंद हो गयी। उसके बाद लता बंबई (अब मुंबई ) आ गयीं। वहां उन्होंने पहले उस्ताद अमान अली खां फिर अमानत अली खां से बाकायदा शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली। 1947 तक उनका काफी नाम हो गया था। फिल्म ‘मजबूर’ में उन्हें गायन का मौका संगीकार गुलाम हैदर ने दिया। फिल्मिस्तान के सुबोध मुखर्जी लता की आवाज से संतुष्ट नहीं थे लेकिन गुलाम हैजर अपने निश्चय पर अड़े रहे। उन्होंने मुखर्जी से यहां तक कह डाला-‘ देखना एक दिन यह लड़की नूरजहां (उस वक्त की प्रसिद्ध गायिका-नायिका) को भी पीछे छोड़ देगी।’ कहना न होगा कि उनकी यह बात सौ फीसदी सच साबित हुई। बाद में नूरजहां तक लता की प्रशंसिका बन गयी थीं। उसके बाद लता ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और फिल्मी पार्श्वगायन के क्षेत्र में दिन ब दिन कामयाबी की नयी मंजिलें तय करती रहीं। पुराने संगीतकारों अनिल विश्वास, नौशाद, हुसनलाल-भगतराम, खेमचंद्र प्रकाश, शंकर-जयकिशन और रोशन से लेकर नये संगीतकारों के निर्देशन में भी लता ने बखूबी गाया।

दशकों से सुबह-शाम, दिन-रात देशवासियों के कानों में मिसरी की मिठास घोलती आई है लता की आवाज। उत्सव, समारोहों में गूंजते रहे उनके नगमे। सिर चढ़ कर बोलता रहा उनकी आवाज का जादू। हर वर्ग, हर हैसियत के व्यक्ति के दिल को छूती है उनकी कोयल सी बोली। नयी गायिकाओं के आने लोकप्रिय होने के बाद भी अरसे तक लता की आवाज का जादू बरकरार रहा। उनकी आवाज में जो वैविध्य है वही उसकी विशेषता है। एक प्रेमिका का दर्द, मनुहार, शोखी को वे बखूबी अपनी पुरअसर आवाज के जरिये उभार सकती हैं। वहीं उनकी आवाज में मां का वात्सल्य, पुजारन की श्रद्धा और शिशु की चपलता भी बड़ी खूबी से उनके स्वरों में ढलती है। एक शब्द में भारत के लिए ईश्वर का वरदान है लता।

वे भाषाओं की सीमा में नहीं बंधीं, हर भाषा में गाया और खूब गाया। गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड में उनका नाम आया सबसे अधिक गीत गाने वाली गायिका के रूप में। 1946 से गा रही लता की एक खूबी यह भी है कि उन्होंने जिस भी हीरोइन के लिए गाया उसकी आवाज से अपने गाने का अंदाज मिलाने की उन्होंने हमेशा कोशिश की।

किसी ने उनकी आवाज की विविधता के मद्देनजर एक बार मजाक में कहा था-‘लता को दोहरा पारिश्रमिक दे दिया जाये तो वे हीरो-हीरोइन दोनों के लिए गा सकती हैं। ’ लता की एक विशेषता यह भी रही है कि उनकी उम्र ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी, उनकी आवाज की मिठास और गाढ़ी होती गयी। उनका स्वर और मधुर होता गया।



शुक्रवार, सितंबर 30, 2011

सोहराब मोदी

नाटक से फिल्म तक
-राजेश त्रिपाठी

2 नवंबर 1897 को बंबई में जन्मे सोहराब मोदी का बचपन रामपुर में बीता, जहां उनके पिता नवाब के यहां सुपरिंटेंडेंट थे। नवाब रामपुर का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। रामपुर में ही सोहराब मोदी ने फर्राटेदार उर्दू सीखी। अभिनय की प्रारंभिक शिक्षा उन्हें अपने भाई रुस्तम की नाटक कंपनी सुबोध थिएट्रिकल कंपनी से मिली,जिसमें उन्होंने 1924 से काम करना शुरू कर दिया था। वहीं उन्होंने संवाद को गंभीर और सधी आवाज में बोलने की कला सीखी, जो बाद में उनकी विशेषता बन गयी। कुछ ही समय में वे नाटकों में उन्होंनेप्रमुख भूमिका निभाने लगे। ‘हैमलेट’ और ‘द सोल आफ डाटर’ उनके लोकप्रिय नाटक थे जिनमें उन्होंने अभिनय किया।
बाद में उनका परिवार रामपुर से बंबई चला आया। वहां उन्होंने परेल के न्यू हाईस्कूल से मैट्रिक पास किया। जब ये अपने प्रिंसिपल से यह पूछने गये कि भविष्य में क्या करें, तो उनके प्रिंसिपल ने कहा,-‘तुम्हारी आवाज सुन कर तो यही लगता है कि तुम्हे या तो नेता बनना चाहिए या अभिनेता।’ और सोहराब अभिनेता बन गये। उनकी आवाज की तरह बुलंद थी। अंधे तक उनकी फिल्मों के संवाद सुनने जाते थे।
16 वर्ष की उम्र में वे ग्वालियर के टाउनहाल में फिल्मों का प्रदर्शन करते थे। बाद में अपने भाई रुस्तम की मदद से उन्होंने ट्रैवलिंग सिनेमा का व्यवसाय शुरू किया। फिर अपने भाई के साथ ही उन्होंने बंबई में स्टेज फिल्म कंपनी की स्थापना की। इस कंपनी की पहली फिल्म 1953 में बनी ‘खून का खून’ थी, जो उनके नाटक ‘हैमलेट’ का फिल्मी रूपांतर थी। इसमें सायरा बानो की मां नसीम बानो पहली बार परदे पर आयीं। ‘सैद –ए-हवस’ (1936) भी नाटक ‘किंग जान’ पर आधारित थी। सोहराब मूलतः नाटक से आये थे, यही वजह है कि उनकी पहले की फिल्मों में पारसी थिएटर की झलक मिलती है। ऐतिहासिक फिल्में बनाने में वे सबसे आगे थे। उन्होंने जितनी फिल्में बनायीं, नमें करीब आधा दर्जन फिल्में ऐतिहासिक थीं।

1936 में स्टेज फिल्म कंपनी मिनर्वा मूवीटोन हो गयी और इसका प्रतीक चिह्न शेर हो गया। अपने इस बैनर में उन्होंने जो फिल्में बनायीं वे थीं- आत्म तरंग (1937), खान बहादुर (1937), डाइवोर्स (1938), जेलर (1938), मीठा जहर (1938), पुकार (1939), भरोसा (1940),सिकंदर (1941), फिर मिलेंगे (1942), पृथ्वी वल्लभ ((1943).एक दिन का सुलतान (1945), मंझधार (1947), दौलत (1949), शीशमहल (1950), झांसी की रानी (1953), मिर्जा गालिब (1954), कुंदन (1955 ), राजहठ (1956), नौशेरवा-ए-आदिल (1957), जेलर (1958), मेरा घर मेरे बच्चे (1960), समय बड़ा बलवान (1969)। इसके अलावा उन्होंने सेंट्रल स्टूडियो के लिए ‘परख’ और शैली फिल्म्स के लिए ‘मीनाकुमारी की अमर कहानी’ बनायी।

भारत की पहली टेकनीकलर फिल्म ‘झांसी की रानी’ उन्होंने बनायी थी। इसके लिए वे हालीवुड से तकनीशियन और साज-सामान लाये थे। इसमें झांसी की रानी बनी थीं उनकी पत्नी महताब। सोहराब मोदी राजगुरु बने थे। इस फिल्म को उन्होंने बड़ी तबीयत से बनाया था , लेकिन फिल्म फ्लाप हो गयी। इस विफलता से उबरने के लिए उन्होंने ‘मिर्जा गालिब’ (सुरैया-भारतभूषण) बनायी। यह फिल्म व्यावसायिक तौर पर तो सफल रही ही इसे राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक भी मिला। उन्होंने सामाजिक समस्याओं परभी कुछ यादगार फिल्में बनायीं। इनमें शराबखोरी की बुराई पर बनायी गयी फिल्म ‘मीठा जहर’ और तलाक की समस्या पर ‘डाईवोर्स’ उल्लेखनीय हैं। उनकी सर्वाधिक चर्चित और सफल ऐतिहासिक फिल्म थी ‘पुकार’। इसमें चंद्रमोहन (जहांगीर), नसीम बानो (नूरजहां), सोहराब मोदी (संग्राम सिंह) और सरदार अख्तर की प्रमुख भूमिकाएं थीं।
इस फिल्म को न सिर्फ प्रेस बल्कि दर्शकों से भी भरपूर प्रशंसा मिली। ‘सिकंदर’ में पोरस और ‘पुकार’ में संग्राम सिंह की भूमिका में सोहराब मोदी के अभिनय की बड़ी प्रशंसा हुई।
भारत में ऐतिहासिक फिल्मों को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। महताब से उनकी शादी 21 अप्रैल 1946 को हुई, लेकिन मोदी का परिवार उन्हें बहू के रूप में स्वीकारने को तैयार नहीं था इसलिए कई साल उन्हें अलग रहना पड़ा। 1950 में उनके परिवार ने उनकी शादी को स्वीकार कर लिया। 1978 आते-आते 80 साल के मोदा साहब को चलने-फिरने में छड़ी का सहारा लेना पड़ गया था। 1980 में भारत सरकार ने फिल्मों में उनके महान योगदान के लिए उन्हे दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया। उनकी बड़ी ख्वाहिश थी ‘पुकार’ को फिर से बनाने की। लेकिन बीमारी ने ऐसा नहीं करने दिया। 1984 में डाक्टरों ने यह घोषित कर दिया कि उन्हें कैंसर है। तब तक उन्हें खाना निगलने में भी तकलीफ होने लगी थी। 1983 में उन्होंने अपनी आखिरी फिल्म ‘गुरुदक्षिणा’ का मुहूर्त किया था। उसे अधूरा छोड़ 28 जनवरी 1984 को मोदी हमेशा के लिए चिरनिद्रा में निमग्न हो गये। वे बड़े आला तबीयत के इनसान थे। उनका धैर्य भी अपार था। कई बार कलाकार कई रिटेक देते , पर मोदी साहब के चेहरे पर शिकन तक नहीं पड़ती थी।

मंगलवार, अक्तूबर 19, 2010

केदार शर्मा

फिल्म जगत के एक महत्वपूर्ण स्तंभ
-राजेश त्रिपाठी
अमृतसर के जिले के नोरवाल में जन्मे केदार शर्मा के माता-पिता बचपन में यही समझते थे कि उनसे कुछ काम-धाम नहीं हो पायेगा। लेकिन केदार शर्मा तो किसी और धातु के बने थे। उनमें बचपन से ही संघर्ष करने का जज्बा था और थी दिल जिस चीज की हामी भरे सिर्फ वही करने की धुन। वे सपनों की दुनिया यानी फिल्म उद्योग से जुड़ने की ठान चुके थे। अपनी इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए पहले वे कलकत्ता आये और फिर वहां से बंबई चले गये। फिल्मों में वे हीरो बनने आये थे लेकिन उनकी बेहद पतली आवाज इस राह में रोड़ा बन गयी। हीरो बनने की अपनी इस ख्वाहिश को बाद में उन्होंने अपने बेटे अशोक शर्मा को ‘हमारी याद आयेगी’फिल्म में हीरो बना कर पूरी की। केदार शर्मा खुद भले ही हीरो न बन पाये हों लेकिन फिल्मी दुनिया को राज कपूर, मधुबाला, गीता बाली, तनूजा और माला सिन्हा जैसे अनमोल सितारे देने का श्रेय उन्हें ही है। उन्होंने ‘चित्रलेखा’, ‘जोगन’, ‘बावरे नैन’, ‘सुहागरात’, ‘हमारी याद आयेगी’ और ‘पहला कदम’ जैसी यादगार फिल्मों का निर्माण-निर्देशन, लेखन और गीत लेखन किया।
      स्टारमेकर केदार शर्मा की निर्देशक के रूप में पहली फिल्म ‘औलाद’ थी। संयोग से यह फिल्म ठीक उसी वक्त रिलीज हुई , जब महबूब खान की ‘औरत’ और वी. शांताराम की ‘आदमी’ रिलीज हुई थी। उस वक्त अपनी इस फिल्म के बारे में बात करते हुए वे अक्सर मजाक में कहा करते थे-‘आदमी’ और ‘औरत’ चाहे किसी के भी हों ‘औलाद’ तो मेरी है। इसके बाद आयी उनकी ‘चित्रलेखा’ इसमें प्रमुख पात्र थीं महताब।  ‘चित्रलेखा’ ‘हिट’ हुई, लोग महताब को भी चाहने लगे। ‘चित्रलेखा’ के बाद शर्मा जी काफी मशहूर निर्देशक हो गये।
केदार शर्मा
       इसके बाद वे रंजीत स्टूडियो की यूनिट में शामिल हो गये। उन दिनों इसके मालिक चंदूलाल शाह थे। शर्मा जी ने श्री शाह से ख्वाहिश जाहिर की कि वे मोतीलाल को हीरो लेकर ‘अरमान’ फिल्म बनाना चाहते हैं। मोतीलाल उन दिनों सुपर एक स्टार थे। उन्होंने शर्मा जी के सामने तीन शर्तें रखीं। लेकिन कुछ दिन उनके साथ काम करने के बाद वे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी शर्तें तोड़ दीं। एक बड़ा मजेदार वाकया है। एक दिन जब मोतीलाल सेट पर नहीं पहुंचे तो उन्होंने उनके घर फोन कर के उनकी माता जी के नाम संदेश दे दिया। दूसरे दिन मोतीलाल ने शर्मा जी से बताया कि किस तरह उनकी मां शर्मा जी की पतली आवाज के चलते उनको लड़की समझ बैठी थीं। यह धोखा मेरे साथ भी मुंबई में हुआ था। यह 1972 की बात है। जब उनसे मिलने के लिए मैंने
दादर के अरोमा होटल से उनके घर फोन किया तो उधर से पतली आवाज सुन कर मेरे मुंह से बरबस निकल गया-आप कौन बोल रही हैं, शर्मा जी को दीजिए ना। उधर से फिर उसी पतली
आवाज ने जवाब दिया-‘मैं केदार शर्मा बोल रहा हूं आप श्रीसाउंड स्टूडियो के मेरे दफ्तर में आ जाइए।’

    ‘गौरी’, ‘विषकन्या’ और ‘विद्यापति’ में पृथ्वीराज कपूर के साथ काम कर के वे उनके अच्छे दोस्त बन गये थे। पृथ्वीराज कपूर ने अपने बेटे राज कपूर को शर्मा जी को सौंपते हुए कहा कि वे उसे कुछ काम सिखायें। राज कपूर शर्मा जी के यहां क्लैपर ब्वाय बन गये। एक दिन वे क्लैप देना भूल कंघी से बाल संवारने लगे। केदार शर्मा को बड़ा गुस्सा आया और उन्होंने उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया। वैसे उस दिन शर्मा जी को यह एहसास हो गया था कि राज कैमरे के सामने आना चाहते हैं। अगले ही दिन उन्होंने राज को अपनी फिल्म ‘नीलकमल’का हीरो बना दिया। इस फिल्म की हीरोइन थीं मधुबाला। यानी शर्मा जी के एक थप्पड़ ने राज कपूर को हीरो बना दिया। मधुबाला जिन्हें वीनस आफ इंडिया कहा जाता था, उस वक्त 13 साल की थीं।

    गीता बाली को पहले वे रद्द कर चुके थे क्योंकि वे संवाद शुद्ध नहीं बोल पाती थीं। बाद में वे उनकी फिल्म ‘सुहागरात’ की हीरोइन बनीं। ‘सुहागरात’ के हीरो भारतभूषण थे जो उन दिनों संघर्ष कर रहे थे। शर्मा जी फिल्मों में जमने के लिए खुद संघर्ष कर चुके थे इसलिए उनको संघर्षरत लोगों की मुसीबत का पता था। माला सिन्हा को गीता बाली शर्मा जी के पास इसलिए लायी थीं ताकि वे उनको कुछ अभिनय सिखा दें। बाद में माला उनकी फिल्म ‘रंगीन रातें’ की हीरोइन बनीं।
   ‘हमारी याद आयेगी’ में उन्होंने तनूजा को हीरोइन बनाया। इसमें हीरो बने उनके वकील बेटे अशोक शर्मा। कहते हैं कि अशोक फिल्म में काम नहीं करना चाहते थे लेकिन शर्मा जी की जिद
के आगे उन्हें झुकना पड़ा। तनूजा बड़ी तुनकमिजाज थीं। मां शोभना समर्थ शर्मा जी के पास उन्हें इस उम्मीद से लायी थीं कि वे उनको स्टार बना दें। तनूजा से ठीक से अभिनय कराने में उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी लेकिन उन्होंने उन्हें स्टार बना ही दिया।
 
  शर्मा जी ने सपना सारंग को हीरोइन लेकर फिल्म ‘पहला कदम’ बनायी लेकिन दुर्भाग्य से वह फिल्म सही ढंग से प्रदर्शित नहीं हो सकी। इसके बाद उसे लेकर कुछ टेली फिल्में भी बनायीं। शर्मा जी की प्रतिभा बहुआयामी थी। वे एक साथ निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, पटकथा लेखक और गीतकार भी थे। उनकी चर्चित फिल्मों में 1950 में आयीं फिल्में ‘बावरे नैन’ और ‘जोगन’ भी हैं। इनके अलावा उनको चोराचोरी,गुनाह, नेकी और बदी, दुनिया एक सराय, चांद चकोरी, धन्ना भगत जैसी
फिल्मों के लिए भी याद किया जाता रहेगा। शर्मा जी 1998 तक फिल्मजगत से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। 29 अप्रैल 1999 को फिल्मजगत के इस महान निर्देशक ने 89 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली। बुलंद हौसले और दृढ़निश्चय वाले शर्मा जी फिल्मी किले के एक सुदृढ़ स्तंभ थे।