शुक्रवार, सितंबर 30, 2011

सोहराब मोदी

नाटक से फिल्म तक
-राजेश त्रिपाठी

2 नवंबर 1897 को बंबई में जन्मे सोहराब मोदी का बचपन रामपुर में बीता, जहां उनके पिता नवाब के यहां सुपरिंटेंडेंट थे। नवाब रामपुर का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। रामपुर में ही सोहराब मोदी ने फर्राटेदार उर्दू सीखी। अभिनय की प्रारंभिक शिक्षा उन्हें अपने भाई रुस्तम की नाटक कंपनी सुबोध थिएट्रिकल कंपनी से मिली,जिसमें उन्होंने 1924 से काम करना शुरू कर दिया था। वहीं उन्होंने संवाद को गंभीर और सधी आवाज में बोलने की कला सीखी, जो बाद में उनकी विशेषता बन गयी। कुछ ही समय में वे नाटकों में उन्होंनेप्रमुख भूमिका निभाने लगे। ‘हैमलेट’ और ‘द सोल आफ डाटर’ उनके लोकप्रिय नाटक थे जिनमें उन्होंने अभिनय किया।
बाद में उनका परिवार रामपुर से बंबई चला आया। वहां उन्होंने परेल के न्यू हाईस्कूल से मैट्रिक पास किया। जब ये अपने प्रिंसिपल से यह पूछने गये कि भविष्य में क्या करें, तो उनके प्रिंसिपल ने कहा,-‘तुम्हारी आवाज सुन कर तो यही लगता है कि तुम्हे या तो नेता बनना चाहिए या अभिनेता।’ और सोहराब अभिनेता बन गये। उनकी आवाज की तरह बुलंद थी। अंधे तक उनकी फिल्मों के संवाद सुनने जाते थे।
16 वर्ष की उम्र में वे ग्वालियर के टाउनहाल में फिल्मों का प्रदर्शन करते थे। बाद में अपने भाई रुस्तम की मदद से उन्होंने ट्रैवलिंग सिनेमा का व्यवसाय शुरू किया। फिर अपने भाई के साथ ही उन्होंने बंबई में स्टेज फिल्म कंपनी की स्थापना की। इस कंपनी की पहली फिल्म 1953 में बनी ‘खून का खून’ थी, जो उनके नाटक ‘हैमलेट’ का फिल्मी रूपांतर थी। इसमें सायरा बानो की मां नसीम बानो पहली बार परदे पर आयीं। ‘सैद –ए-हवस’ (1936) भी नाटक ‘किंग जान’ पर आधारित थी। सोहराब मूलतः नाटक से आये थे, यही वजह है कि उनकी पहले की फिल्मों में पारसी थिएटर की झलक मिलती है। ऐतिहासिक फिल्में बनाने में वे सबसे आगे थे। उन्होंने जितनी फिल्में बनायीं, नमें करीब आधा दर्जन फिल्में ऐतिहासिक थीं।

1936 में स्टेज फिल्म कंपनी मिनर्वा मूवीटोन हो गयी और इसका प्रतीक चिह्न शेर हो गया। अपने इस बैनर में उन्होंने जो फिल्में बनायीं वे थीं- आत्म तरंग (1937), खान बहादुर (1937), डाइवोर्स (1938), जेलर (1938), मीठा जहर (1938), पुकार (1939), भरोसा (1940),सिकंदर (1941), फिर मिलेंगे (1942), पृथ्वी वल्लभ ((1943).एक दिन का सुलतान (1945), मंझधार (1947), दौलत (1949), शीशमहल (1950), झांसी की रानी (1953), मिर्जा गालिब (1954), कुंदन (1955 ), राजहठ (1956), नौशेरवा-ए-आदिल (1957), जेलर (1958), मेरा घर मेरे बच्चे (1960), समय बड़ा बलवान (1969)। इसके अलावा उन्होंने सेंट्रल स्टूडियो के लिए ‘परख’ और शैली फिल्म्स के लिए ‘मीनाकुमारी की अमर कहानी’ बनायी।

भारत की पहली टेकनीकलर फिल्म ‘झांसी की रानी’ उन्होंने बनायी थी। इसके लिए वे हालीवुड से तकनीशियन और साज-सामान लाये थे। इसमें झांसी की रानी बनी थीं उनकी पत्नी महताब। सोहराब मोदी राजगुरु बने थे। इस फिल्म को उन्होंने बड़ी तबीयत से बनाया था , लेकिन फिल्म फ्लाप हो गयी। इस विफलता से उबरने के लिए उन्होंने ‘मिर्जा गालिब’ (सुरैया-भारतभूषण) बनायी। यह फिल्म व्यावसायिक तौर पर तो सफल रही ही इसे राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक भी मिला। उन्होंने सामाजिक समस्याओं परभी कुछ यादगार फिल्में बनायीं। इनमें शराबखोरी की बुराई पर बनायी गयी फिल्म ‘मीठा जहर’ और तलाक की समस्या पर ‘डाईवोर्स’ उल्लेखनीय हैं। उनकी सर्वाधिक चर्चित और सफल ऐतिहासिक फिल्म थी ‘पुकार’। इसमें चंद्रमोहन (जहांगीर), नसीम बानो (नूरजहां), सोहराब मोदी (संग्राम सिंह) और सरदार अख्तर की प्रमुख भूमिकाएं थीं।
इस फिल्म को न सिर्फ प्रेस बल्कि दर्शकों से भी भरपूर प्रशंसा मिली। ‘सिकंदर’ में पोरस और ‘पुकार’ में संग्राम सिंह की भूमिका में सोहराब मोदी के अभिनय की बड़ी प्रशंसा हुई।
भारत में ऐतिहासिक फिल्मों को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। महताब से उनकी शादी 21 अप्रैल 1946 को हुई, लेकिन मोदी का परिवार उन्हें बहू के रूप में स्वीकारने को तैयार नहीं था इसलिए कई साल उन्हें अलग रहना पड़ा। 1950 में उनके परिवार ने उनकी शादी को स्वीकार कर लिया। 1978 आते-आते 80 साल के मोदा साहब को चलने-फिरने में छड़ी का सहारा लेना पड़ गया था। 1980 में भारत सरकार ने फिल्मों में उनके महान योगदान के लिए उन्हे दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया। उनकी बड़ी ख्वाहिश थी ‘पुकार’ को फिर से बनाने की। लेकिन बीमारी ने ऐसा नहीं करने दिया। 1984 में डाक्टरों ने यह घोषित कर दिया कि उन्हें कैंसर है। तब तक उन्हें खाना निगलने में भी तकलीफ होने लगी थी। 1983 में उन्होंने अपनी आखिरी फिल्म ‘गुरुदक्षिणा’ का मुहूर्त किया था। उसे अधूरा छोड़ 28 जनवरी 1984 को मोदी हमेशा के लिए चिरनिद्रा में निमग्न हो गये। वे बड़े आला तबीयत के इनसान थे। उनका धैर्य भी अपार था। कई बार कलाकार कई रिटेक देते , पर मोदी साहब के चेहरे पर शिकन तक नहीं पड़ती थी।