बुधवार, अगस्त 25, 2010

छोटा कद. बुलंद हौसला

महबूब खान

राजेश त्रिपाठी
छोटे कद और बुलंद हौसले वाले महबूब खान का जन्म गुजरात में बड़ौदा जिले के अंतर्गत एक छोटे से गांव सरार काशीपुर में 7 सितंबर 1906 को हुआ था। लिखने-पढ़ने के नाम पर वे सिर्फ उर्दू में अपना हस्ताक्षर करना भर जानते थे।चेकों पर भी वे लोगों के नाम नहीं लिख पाते थे। बस सिर्फ हस्ताक्षर कर देते थे। शायद यही वजह है कि उन्होने इतनी फिल्में बनायीं , लेकिन किसी की भी स्क्रिप्ट वे साथ नहीं रखते थे। सारा कुछ उनके दिमाग में होता था। कहते हैं कि एक बार कोई अनपढ़ उनसे काम मांगने आया तो कहीं आर काम दिलाने का वादा करते हुए उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा-‘मैं अपने गिर्द और अनपढ़ नहीं रखना चाहता। एक ही काफी है। ’ जाहिर है उनका इशारा अपनी ओर था।

जब वे इक्कीस साल के थे तभी उन्हें फिल्मों में काम पाने की ललक हुई। वैसे फिल्मों में वे पहले ले ही दिलचस्पी लेते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि वे 1927 में घर से भाग कर बंबई चले आये। वहां किसी दोस्त की सहायता से उन्होंने उन दिनों की मशहूर फिल्म निर्माण कंपनी इंपीरियल में 30 रुपये माहवार पर साधारण-सी नौकरी कर ली। वे आये थे फिल्म अभिनेता बनने और उनकी यह ख्वाहिश सागर मूवीटोन की पहली सवाक फिल्म ‘मेरी जान’ ने पूरी की। इसमें वे हीरोइन जुबेदा के छोटे भाई बने थे। पूरी फिल्म में उन्हें खलनायक याकूब के कोड़े खाने पड़े थे। वे आठ साल तक कलाकार के रूप में काम करते रहे। इंपीरियल कंपनी में अपनी योग्यता का परिचय देने के बाद, महबूब खान ने सागर मूवीटोन की फिल्मों का निर्देशन किया। सागर मूवीटोन के लिए उनके द्वारा िनर्देशित फिल्में थीं-अल हिलाल, डेक्कन क्वीन,मनमोहन, जागीरदार, वी थ्री (हम तुम और वह), वतन। 1939 में बनी ‘एक ही रास्ता’ से उन्हें बड़ी ख्याति मिली। सागर मूवीटोन के साथ उनकी आखिरी फिल्म थी ‘अलीबाबा’। इसके बाद सागर मूवीटोन नेशनल स्टूडियो लिमिटेड में मिल गया। इस नयी कंपनी का प्रोडक्शन इनचार्ज महबूब को बनाया गया।

महबूब खान
इस नयी कंपनी के साथ उनकी पहली फिल्म थी ‘औरत’। यह किसानों की परेशानी दरसानेवाली ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म थी। इसका आधार था पर्ल बुक का मशहूर उपन्यास ‘द मदर’। ‘औरत’ में प्रमुख भूमिका सरदार अख्तर ने निभायी थी, जो बाद में श्रीमती महबूब खान बन गयी थीं। अख्तर महबूब की दूसरी पत्नी थीं। ‘औरत’ फिल्म को उन्होंने 1955 में अपने बैनर महबूब प्रो़डक्शन के अंतर्गत ‘मदर इंडिया’ के नाम से बनाया। इसमें उन्होंने सरदार अख्तर वाली भूमिका नरगिस को दी। अन्य भूमिकाएं राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राजकुमार, कन्हैयाला और कुमकुम को दीं। इसी फिल्म के निर्माण के दौरान सुनील दत्त और नरगिस की मुहब्बत परवान चढ़ी और ‘मदर इंडिया’ की कामयाबी के बाद ही नरगिस-सुनील ने शादी कर ली। यह फिल्म ‘आन’ के बाद बनी महबूब प्रोडक्शन की दूसरी टेकनीकलर फिल्म थी। यह विदेश में भी खूब चली।

‘औरत’ के बाद नेशनल स्टूडियो के लिए उन्होंने ‘बहन’, ‘नयी रोशनी’ ‘जवानी’, ‘निर्दोष’, ‘रोटी’ बनायी। ‘रोटी’ के क्लाइमैक्स दृश्य में चंद्रमोहन को पता लगता है कि उसके पास बक्सा भर सोने की ईंटे हैं लेकिन खाने को एक दाना नहीं। इससे वे संदेश देना चाहते थे कि अगर पैसे से रोटी न खरीदी जा सके, तो वह पैसा बेकार है। ‘रोटी’ के बाद नेशनल स्टूडियो के.के. मोदी ने ले लिया और महबूब खान ने अपनी निर्माण संस्था महबूब प्रोडक्शंस शुरू की, जिसका प्रतीक चिह्न था हंसिया –हथौड़ा। इसके अंर्गत उनके द्वारा बनायी गयी पहली फिल्म थी ‘नजमा’ जिसमें मुसलमानों की सामाजिक स्थिति का चित्रण था। इसमें नवागता वीणा को पेश किया गया था। और बांबे टाकीज के बाहर अशोक कुमार की यह पहली फिल्म थी। इसके बाद महबूब खान ने ‘तकदीर’ बनायी। यह नरगिस की पहली फिल्म थी। उस वक्त उनकी उम्र 14 साल थी। ‘तकदीर’ के बाद ऐतिहासिक फिल्म ‘ हुमायूं’ आयी। फिर उन्होंने तीन ऐसे कलाकारों-सुरेंद्र, सुरैया, नूरजहां- को लेकर ‘अनमोल घड़ी’ बनायी जो अपने गीत खुद ही गा सकते थे। इस फिल्म के गाने नौशाद ने संगीतबद्ध किये जो बहुत ही लोकप्रिय हुए।

महबूब खान ने ‘ऐलान’, ‘अनोखी अदा’, ‘ अंदाज’ ßनरगिस, दिलीप कुमार, राज कपूर) बनायी। ‘अंदाज’ के गीत भी बहुत हिट हुए। इसके बाद उन्होंने अपनी पहली पहली टेक्नीकलर फिल्म ‘आन’ बनायी। इसमें दिलीप कुमार, प्रेमनाथ, निम्मी और नादिरा (जिसकी यह पहली फिल्म थी) की प्रमुख भूमिकाएं थीं। यह फिल्म देश-विदेश में सर्वत्र बेहद कामयाब रही। इससे हुई कमाई से ही उन्होंने बांद्रा में अपना महबूब स्टूडिो खड़ा किया। इस स्टूडियो में उनकी पहली फिल्म थी ‘ अमर’ जिसमें दिलीप कुमार, मधुबाला और निम्मी की प्रमुख भूमिकाएं थीं।उन्होंने एक फिल्म ‘सन आफ इंडिया’ बनायी इसमें मास्टर साजिद, सिमी, कुमकुम व कंवलजीत की मुख्य भूमिकाएं थीं। यह फिल्म इतनी बुरी तरह फ्लाप हुई कि उनके हौसले पस्त हो गये। वे टूट गये। उनके पास स्टूडियो की साज-संभाल के लिए भी पैसे नहीं रहे। वे दिल के मरीज थे। 27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु की खबर पाकर उन्हें गहरा सदमा पहुंचा। उन्हें तत्काल दिल का दौरा पड़ा और वे हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गये। नरगिस, नलिनी जयवंत, वीना और शेख मुख्तार को परदे पर लाने का श्रेय उन्हें ही है। मजहब के बड़े पक्के थे और पांच वक्त नमाज पढ़ते थे। (आगे पढ़ें)

मंगलवार, अगस्त 03, 2010

इस तरह साकार हुआ हिंदुस्तानी फिल्मों का सपना

    -राजेश त्रिपाठी
  17 मई 1913 को बंबई के पारेख अस्पताल के अहाते में कोरोनेशन थिएटर में यह फिल्म प्रदर्शित की गयी। और इस तरह इस फिल्म से ही भारतीय फिल्मों का जन्म हुआ। यह फिल्म आठ सप्ताह चली। उन दिनों रंगमंच बेहद लोकप्रिय था , उससे इस फिल्म को कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी। नतीजा यह हुआ कि बंबई के बाहर यह फिल्म नहीं चली। सूरत (गुजरात) में दादा साहब ने एक व्यवसायी के साझे में यह फिल्म उस मंच पर दिखायी, जहां नाटक होते थे लेकिन यह कोशिश भी बेकार रही। पहले दिन महज तीन रुपये आये। चलती-फिरती गूंगी फिल्में देखने के बजाय लोग नाटक देखना पसंद करते थे। इसके बाद दादा साहब ने अपनी फिल्म का आकर्षक विज्ञापन देना शुरू किया। इसका काफी असर हुआ और एक शो के 300 रुपये तक आने लगे। दादा साहब बंबई छोड़ कर नासिक चले गये। वहां उन्होने ‘भस्मासुर मोहिनी’ बनायी। फिल्म विफल रही। अपनी अगली फिल्म ‘सत्यवान सावित्री’ बनाने के लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने तक बेचने पड़े। इस बीच उन्होंने कई वृत्तचित्र भी बनाये। ‘सत्यवान सावित्री’ बनाने के बाद वे अपनी तीनों फिल्में लेकर इंग्लैंड गये। वहां उन्होंने अपनी फिल्मों का प्रदर्शन किया। लोग उनसे बहुत प्रभावित हुए। वहां की एक फिल्म कंपनी के मालिक ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि उसके साथ साझे में इंग्लैंड में ही भारतीय फिल्मों का निर्माण करें लेकिन दादा के मन में तो भारतीय फिल्मों की बुनियाद पुख्ता करने की धुन थी।
स्वदेशलौट कर उन्होंने ‘लंका दहन’ बनायी जो न सिर्फ बंबई अपितु देश के अन्य भागों में भी बेहद कामयाब रही। अब तक उन्होंने सारी फिल्में अपने बैनर फालके फिल्म कंपनी के अंतर्गत बनायी थीं। इसके बाद कई धनवान लोगों ने उनके इस व्यवसाय में साझे का प्रस्ताव रखा। दादा ने यह प्रस्ताव मान लिया। इस तरह से हिंदुस्तान कंपनी का जन्म हुआ। इस कंपनी के बैनर में उन्होंने ‘कृष्म जन्म’ बनायी और अपना वर्षों पुराना सपना पूरा किया। यह फिल्म बहुत सफल रही। इसके बाद उन्होंने ‘कालिया मर्दन’ बनायी जिसमें उनकी बेटी मंदाकिनी ने बाल कृष्ण की भूमिका बड़ी खूबी से की। फिल्म लागातार 10 महीने तक चली। इसके बाद अपने साझेदारों से उनका झगड़ा हो गया । वे फिल्म छोड काशी यात्रा पर चले गये। काफी अरसे बाद वे फिल्मों में वापस आये यौर उन्होंने ‘सती महानंदा’ और ‘सेतुबंधन’ बनायी। यह उनका आखिरी मूक फिल्म थी जिसे बाद में ध्वनि से जोड़ कर सवाक कर दिया गया। दादा साहब फालके द्वारा बनायी गयी पहली और आखिरी सवाक फिल्म थी ‘गंगावतरण’ । इसके बाद उम्र अधिक हो जाने के कारण उन्होंने फिल्में छोड़ दीं। उन्होंने कुल 175 फिल्में बनायीं और खूब धन कमाया लेकिन सब कुछ गंवा दिया। उनीक जिंदगी के आखिरी दिन बेहद तंगी में गुजरे। उन दिनों वी. शांताराम ने उनकी बड़ी आर्थिक मदद की। 16 फरवरी 1944 को भारतीय फिल्मों के इस शलाका पुरुष ने 74 वर्ष की उम्र में नासिक के अपने घर में आखिरी सांस ली। (आगे पढ़े)