हिंदी सिनेमा का इतिहास<(1) राजेश त्रिपाठी
आज भारत विश्व में सर्वाधिक फिल्में निर्मित करनेवाला देश है लेकिन देश में सिनेमा की शुरुआत आसान नहीं रही। आज हमारा सिनेमा जिस मुकाम पर है, उसे वहां तक पहुंचने के लिए जाने कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है और कितना प्रयास करना पड़ा है। भारत में फिल्मों के जन्म से लेकर उसके निरंतर क्रमिक विकास की कहानी जानने के लिए बहुत पीछे जाना होगा।
7 जुलाई 1896,बंबई का वाटसन थिएटर। लुमीयर ब्रादर्स नामक दो फ्रांसीसी अपनी फिल्में लेकर भारत आये। उक्त थिएटर में उनका प्रीमियर हुआ। प्रीमियर करीब 200 लोगों ने देखा। टिकट दर थी दो रुपये प्रति व्यक्ति। यह उन दिनों एक बड़ी रकम थी। एक सप्ताह बाद इनकी ये फिल्में बाकायादा नावेल्टी थिएटर में प्रदर्शित की गयीं। बंबई का यह थिएटर बाद में एक्सेल्सियर सिनेमा के नाम से मशहूर हुआ। रोज इन फिल्मों के दो से तीन शो किये जाते थे, टिकट दर थी दो आना से लेकर दो रुपये तक। इनमें 12 लघु फिल्में दिखायी जाती थीं। इनमें ‘अराइवल आफ ए ट्रेन’, ‘द सी बाथ’ तथा ‘ले़डीज एंड सोल्जर्स आन ह्वील’ प्रमुख थीं। लुमीयर बंधुओं ने जब भारतीयों को पहली बार सिनेमा से परिचित कराया तो लोग बेजान तसवीरों को चलता-फिरता देख दंग रह गये। हालांकि उन दिनों इन फिल्मों के लिए जो टिकट दर रखी गयी थी, वह काफी थी लेकिन फिर भी लोगों ने इस अजूबे को अपार संख्या में देखा। पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस नयी चीज की तारीफों के पुल बांध दिये। एक बार इन फिल्मो को लोकप्रियता मिली , तो भारत में बाहर से फिल्में आने और प्रदर्शित होने लगीं। 1904 में मणि सेठना ने भारत का पहला सिनेमाघर बमाया, जो विशेष रूप से फिल्मों के प्रदर्शन के लिए ही बनाया गया था। इसमें नियमित फिल्मों का प्रदर्शन होने लगा। उसमें सबसे पहले विदेश से आयी दो भागों मे बनी फिल्म ‘द लाइफ आफ क्राइस्ट’ प्रदर्शित की गयी। यही वह फिल्म थी जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फालके को भारत में सिनेमा की नींव रखने को प्रेरित किया।
हालांकि स्वर्गीय दादा साहब फालके को भारतीय सिनेमा का जनक होने और पूरी लंबाई के कथाचित्र बनाने का गौरव हासिल है लेकिन उनसे पहले भी महाराष्ट्र में फिल्म निर्माण के कई प्रयास हुए। लुमीयर बंधुओं की फिल्मों के प्रदर्शन के एक वर्ष के भीतर सखाराम भाटवाडेकर उर्फ सवे दादा ने फिल्म बनाने की कोशिश की। उन्होंने पुंडलीक और कृष्ण नाहवी के बीच कुश्ती फिल्मायी थी। यह कुश्ती इसी उद्देश्य से विशेष रूप से बंबई के हैंगिंग गार्डन में आयोजित की गयी थी। शूटिंग के बाद फिल्म को प्रोसेसिंग के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वहां से जब वह फिल्म प्रोसेस होकर आयी तो सवे दादा अपने काम का नतीजा देख कर बहुत खुश हुए। पहली बार यह फिल्म रात के वक्त बंबई के खुले मैदान में दिखायी गयी। उसके बाद उन्होंने अपनी यह फिल्म पेरी थिएटर में प्रदर्शित की । टिकट की दर थी आठ आना से तीन रुपये तक। अकसर हर शो में उनको 300 रुपये तक मिल जाते थे। उन्होने भगवान कृष्ण के जीवन पर भी एक फिल्म बनाने का निश्चय किया था लेकिन भाई की मौत ने उन्हें तोड़ दिया। उन्होंने अपना कैमरा बेच दिया और फिल्म निर्माण बंद कर दिया।(क्रमशः)
शनिवार, फ़रवरी 13, 2010
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