रविवार, फ़रवरी 28, 2010

इस तरह मिली फिल्मों को जुबान

   हिंदी सिनेमा का इतिहास-5
-राजेश त्रिपाठी
  फिल्मों ने जब बोलना शुरू किया तो दर्शकों को बड़ा अचरज हुआ। चलती-फिरती तस्वीरें बोलने भी लगीं, यह उनके लिए दुनिया का नया आश्चर्य था। फिल्में ‘हाउसफुल’ जानें लगीं। दर्शकों की लंबी क। तारें सिनेमाघरों के सामने लगने लगीं। चलते-फिरते सिनेमा के मालिकों को अब विश्वास हो गया था कि धंधा चल जायेगा इसलिए स्थायी पक्के सिनेमाघरों का निर्माण होने लगा और फिल्म को बिना रोके लगातार सुचारु रूप से रील खत्म होते ही दूसरे प्रोजेक्टर से अगली रील चलायी जा सके।
   शुरू-शुरू में तस्वीरों को चलते-फिरते और बोलते देख कर अनपढ़ और बोलते देक कर अनपढ़ भोले-भाले देहाती मुंह फाड़ कर रह जाते। परदे पर रेलगाड़ी, सांप या शेर को देख उसको वास्तविक मान बैठते। इस संदर्भ में एक दिलचस्प घटना का जिक्र अप्रासंगिक नहीं होगा। एक फिल्म बनी थीं ‘पंजाब मेल’। इसमें नायिका सुलोचना (रूबी मेयर्स) एक तालाब में नहाने जाती है और एक-एक कर कपड़े खोलने लगती है। तभी पंजाब मेल धड़धड़ाती हुई आ जाती है, जिससे वह दिखाई नहीं देती। इस दृश्य को देखने के लिए कुछ दर्शक बार-बार सिनेमाहाल में यह सोच कर जाते थे कि किसी न किसी दिन तो गाड़ी अवश्य लेट होगी। किंतु सैकड़ों ‘शो’ देखने के बाद भी गाड़ी लेट नहीं हुई और न ही सुलोचना को नग्न देखने की दर्शकों की लालसा ही पूरी हुई।
    पुराने दिनों में देश में पारसी थिएटर और नायक-नौटंकी की धूम थी। यही वजह है कि वर्षों तक तब की फिल्मों में ऐसी नाटकीयता देखने को मिलती थी, जैसे कोई नाटक या नौटंकी देख रहे हों। संवादों और अभिनय में नाटकों की छाप स्पष्ट नजर आती। शायद उस जमाने में निर्माता-निर्देशक दर्शकों के दिल-दिमाग में बसी अभिनय शैली से हट कर कुछ ‘नया’ करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे या फिर वे फिल्मों में मौलिकता-स्वाभाविकता लाने की बात सोच भी नहीं पाते थे। संवाद ही नहीं , फिल्म के गाने भी ऐसे गाये जाते थे, जैसे नाटकों में गाये जाते थे। आर्केस्ट्रा के नाम पर तब तबला, हारमोनियम, सारंगी, मंजीरा और बांसुरी ही हुआ करते थे और संगीत को कम तथा गायक-गायिका के स्वर को अधिक उभारा जाता था।
  तब कलाकार वेतनभोगी होते थे और दोपहर में शूटिंग पैक-अप होने के बाद मिल-जुल कर स्वयं स्टूडियो में ही खाना बनाते थे। उन्हें यह चिंता नहीं थी कि लोग यह सब सुनेंगे, तो क्या कहेंगे क्योंकि वे सब ग्लैमर की दुनिया और व्यक्तिगत प्रचार से दूर, अच्छी फिल्में बनाने के लिए पूर्णतः समर्पित थे।
उन दिनों अखबारों में फिल्म के समाचारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। चित्र छपने की भी गुंजाइश नहीं थी। फिर भी कलाकारों के रोमांस के चर्चे गाहे-बगाहे पढ़ने-सुनने को मिल ही जाते थे। इन्हें लोग चटखारे लेकर पढ़ते-सुनते और दूसरों को सुनाते। अशोक कुमार के साथ देविका रानी, लीला चिटणीस ओर नलिनी जयवंत के रोमांस के चर्चे उन दिनों आम थे। (आगे पढ़ें)

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