बुधवार, मार्च 03, 2010

कभी भोंपू बजा कर होता था फिल्मों का प्रचार

    हिंदी सिनेमा का इतिहास-6
  पहले सम्मानित घराने की युवतियां फिल्मों में नहीं आती थीं। इस पेशे को बहुत बुरा माना जाता था। तब नाचने गाने वालियां ही फिल्मों में काम करती थीं। बाद में इसमें बदलाव आया और देविका रानी, दुर्गा खोटे, लीला चिटणीस, ललिता पवार, शांता आप्टे जैसी कुलीन घराने की युवतियां फिल्मों में आयीं। इसके बाद धीरे-धीरे फिल्मों-फिल्म कलाकारों को इज्जत मिलने लगी, जो आज बुलंदी पर है। आज हर नगर, हर कस्बे में फिल्मी कलाकारों के भक्त-दीवाने मिल जायेंगे। युवा पीढ़ी ने तो जैसे फिल्मी हाव-भाव को अपनी जीवन-शैली बना लिया है।
फिल्मों की शुरुआत के काफी अरसे बाद तक उनके प्रचार के लिए न तो आज जैसे बड़े-बड़े पोस्टर या बैनर थे और न ही अखबारों में विज्ञापन ही छपते थे। शहरों और कस्बों में इक्का या तांगा के अगल-बगल फिल्म, सिनेमाघर का नाम तथा शो का समय लिखा बोर्ड लटका दिया जाता था। जोकर के मेकअप में बैठा प्रचारक भोंपू के चिल्ला-चिल्ला कर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वह सब सुनाता, जो बोर्ड पर लिखा होता था, इसके अलावा दीवारों पर पैंफलेट चिपकाये जाते थे।
तकीनीकी कुशलता के क्षेत्र में भी तब की फिल्में बहुत-बहुत पीछे थीं। तब की फिल्मों की फोटोग्राफी देख कर ऐसा लगता है, जैसे कैमरा एक स्थान पर स्थिर कर दिया जाता था और उसके सामने कलाकार अपने संवाद उपदेशात्मक शैली में वैसे ही बोल कर छुट्टी पा जाते थे, जैसे पारसी रंगमंचके कलाकार करते थे। कैमरा जैसे एक दर्शक की तरह सब कुछ देखता और सिर्फ फिल्म पर आंकता जाता। तब तरह-तरह के लेंस नहीं बने थे, इसलिए क्लोज-अप शाट आदि लेने में बड़ी दिक्कत होती थी। तब कैमरे के सुविधाजनक संचालन के लिए ट्राली भी नहीं थी। ट्रिक फोटोग्राफी में भी आज जैसी उन्नति नहीं हुई थी और न ही मल्टीमीडिया का सहारा था। तब ऐसे किसी दृश्य के लिए फोटोग्राफर को बड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। किसी कलाकार को आकाश में उड़ते दिखाने के लिए फर्श पर आसमान का दृश्य रंग-रोगन से बनाया जाता था। उसमें बादल और चांद-सितारे आंके जाते थे और कलाकार उस पर पेट के बल फिसलता था। कैमरा ऊंचाई पर किसी मचान पर चला जाता था और वहां से उस कलाकार की तस्वीरें लेता रहता था। जब यह दृश्य परदे पर आता तो लगता जैसे कलाकार वाकई आसमान में उड़ रहा है।

सेट की जगह पर शुरू-शुरू में नाटकवाले परदों का इस्तेमाल किया जाता था। बाद में काठ, टाट, बांस की खपच्चियों और रंग-रोगन के माध्यम से भव्य भवनों का निर्माण किया जाने लगा। आज बंबई के स्टूडियो में ऐसे सेट कम ही नजर आते हैं। अब इसकी जगह काठ या प्लाईवुड ने ले ली है। वैसे तो आजकल निजी बंगलों में शूटिंग होने लगी है इसलिए सेट वगैरह का झमेला भी खत्म होता जा रहा है। जब ट्राली आयी तो , तो ट्राली पर घूमता कैमरा फोटोग्राफी के नये-नये गुल खिलाने लगा। बाद में तरह-तरह के लेंस आये, क्लोज य्प शाट, हाई एंगल शाट, लांग शाट, लो एंगल शाट, जूम शाट, पैन साट, हाई शाट, मीडियम शाट, मीडियम क्लोज शाट, मीडियम लांग शाट, लो शाट आदि आसानी से लिये जाने लगे और फिल्म के दृश्य और भी प्रभावी होने लगे। पोर्टेबल कैमरे आने के बाद फिल्म की आउटडोर शूटिंग में भी आसानी होने लगी। फिल्म निर्माण मुनाफे का धंधा माना जाने लगा। शिक्षित युवक विदेश से फिल्म कला की नयी जानकारी लेकर फिल्मों में नवीनता लाने लगे। धीरे-धीरे फिल्मों से पारसी रंगमंच की छाप मिट गयी और संवाद सहजता से आम बोलचाल के लहजे में बोले जाने लगे। पहले कलाकार खुद ही गाते थे। बाद में पार्श्वगायन शुरू होने के बाद कुंदनलाल सहगल,नूरजहां, सुरैया, सुरेंद्र जैसे गायक-कलाकारों की मांग बढ़ी।(आगे पढ़ें)

1 comments:

Udan Tashtari ने कहा…

सिनेमा के इतिहास से जुड़ी रोचक जानकारी दे रहे हैं, आभार.

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