हिदी सिनेमा का इतिहास -12
- राजेश त्रिपाठी
सफल बाल फिल्मों में ‘मुन्ना’ , ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘बाप बेटी’, ‘किताब’ (1970, निर्देशक गुलजार) और ‘जागृति’ (निर्देशक सत्येन बोस) का नाम लिया जा सकता है।
गुलजार ने जहां एक ओर ‘परिचय’ जैसी साफ-सुथरी फिल्म दी, वहीं उन्होंने ‘कोशिश’ में गूंगे-बहरों की समस्या को उभारने की ईमानदार कोशिश की। इस फिल्म में संजीव कुमार और जया भादुड़ी का अभिनय बहुत ही प्रशंसनीय रहा। गुलजार ने युवा-विद्यार्थी असंतोष पर ‘ मेरे अपने’ फिल्म बनायी। इसी कथानक पर पहले तपन सिन्हा बंगला में ‘अपनजन’ के नाम से फिल्म बनायी थी।
नशीली चीजों की तस्करी और इनके इस्तेमाल पर रामानंद सागर की फिल्म ‘चरस’ और देव आनंद की ‘हरे राम हरे कृष्ण’ का नाम लिया जा सकता है। सेक्स की थीम पर वी. शांतराम की ‘पर्वत पर अपना डेरा’, देवकी बोस की ‘नर्तकी’ (1940), केदार शर्मा ‘जोगन’ (1950) और बाद में उनकी ही ‘चित्रलेखा’ (1941, 1964), न्यू थिएटर्स की ‘मुक्ति’ आदि फिल्में बनीं। सेक्स शिक्षा के नाम पर बी. के. आदर्श ने ‘गुप्त ज्ञान’, ‘गुप्त शास्त्र‘ जैसी फूहड़ फिल्में पेश कीं, तो पैसा कमाने के लिए ऐसी फिल्मों का सिलसिला शुरू हो गया, जिनकी कड़ी थीं ‘कामशास्त्र’ , ‘स्त्री पुरुष’ और ‘मन का आंगन’ आदि।
ग्रामीण समाज में व्याप्त सूदखोरों के जुल्म पर महबूब खान की ‘औरत’, ‘रोटी’ और ‘मदर इंडिया’ बनी। निहित स्वार्थों के खिलाफ एक पत्रकार के संघर्ष की गाथा बांबे टॉकीज की ‘नया संसार’ में देखने को मिली।
मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ और मणि कौल की ‘उसकी रोटी’ ने फिल्मों को एक नयी लीक दी। इस लीक को नाम दिया गया कला फिल्म या समांतर सिनेमा। इन फिल्मों ने फिल्म के सशक्त माध्यम के सही उपयोग का रास्ता खोल दिया। फिल्में सम
सामयिक समाज की जुबान बन गयीं। अब वह सिर्फ मनोरंजन तक ही सीमित नहीं रह गयीं। वे सामाजिक संदेश भी देने लगीं। इन फिल्मों में फंतासी के बजाय वास्तविकता पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा। दर्शकों को लगने लगा कि फिल्म के रूप में वे अपने गिर्द घिरी समस्याओं, कुरीतियों और भ्रष्टाचार से साक्षात्कार कर रहे हैं। अब फिल्म उनके लिए महज मनोरंजन का जरिया भर नहीं, बल्कि उस समाज का आईना बन गयी जिसमें वे रहते हैं। इस आईने ने उन्हें श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ , ‘मंथन’, गोविंद निहलानी की ‘आक्रोश’, ‘अर्धसत्य’ से समाज की कई ज्वलंत समस्याओं से रूबरू कराया। इस लिहाज से स्मिता पाटील अभिनीत ‘चक्र’ (निर्देशक-रवींद्र धर्मराज) भी मील का पत्थर साबित हुई।इस तरह के सिनेमा को समांतर सिनेमा का नाम दिया गया जहां वास्तविकता को ज्यादा महत्व दिया गया। जीवन के काफी करीब लगने वाली और समय से सही तादात्म्य स्थापित करने वाली इन फिल्मों का दौर लंबं समय तक नहीं चल पाया। तड़क-भड़क, नाच-गाने और ढिशुंग-ढिशंग से भरी फिल्मों के आगे ये असमय ही मृत्यु को प्राप्त हुईं। जीवंत सिनेमा कही जाने वाली इन फिल्मों की वित्तीय मदद के लिए राष्ट्रीय फिल्म वित्त निगम आगे आया, जो बाद में फिल्म विकास निगम बन गया। (आगे पढ़े)
बुधवार, मई 26, 2010
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4 comments:
umda jaankari ke liye
dhnyvad
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
जब समांतर सिनेमा का ज़ोर था,तब भी इस तरह की सलाह दी जाती थी कि सिनेमा को व्यावसायिक और कला के खांचे में क्यों बांटा जाए। फिल्म सिर्फ अच्छी या बुरी होती है।
Bahut achh Rajesh Ji Bhai Sahen pls likhate rahiye. ham padh rahe hai.
JAI HO
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